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1857 का विद्रोह: left और right इतिहासकारों की समीक्षा

 

मस्कार मित्रों,

स्वागत है आपका भारत की कहानी में.

आज की चर्चा का विषय है 1857 का विद्रोह.

मैं कुमारिल भट्ट right wing दृष्टिकोण प्रस्तुत करूँगा और मेरे साथी धर्मकीर्ति वामपंथी नज़रिये से विश्लेषण करेंगे.

धर्मकीर्ति नमस्कार, आप शुरू करिए कुमारिल

कुमारिल-

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी

बूढ़े भारत में आई फिर से नई जवानी थी

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी

सन 1857 की गर्मियों में उत्तर भारत से ग़दर की ऐसी ज्वाला उठी जिसने भारत में एक सौ साल से काबिज़ ब्रिटिश राज को हिला कर रख दिया. अगले एक साल के लिए आज के UP, Bihar, और मध्य प्रदेश के कई इलाके ब्रिटिश हुकूमत से स्वतन्त्र हो गए. अंग्रेजों से हम मुकाबला तो लगातार करते रहे थे, पर इतने बड़े स्तर पर और इतने वृहत भौगोलिक पैमाने पर ब्रिटिश राज को कभी चुनौती नहीं मिली थी.

धर्मकीर्ति- अंग्रेजों ने इस गदर को सिर्फ एक सिपाही बगावत की संज्ञा देनी चाही. ये सच है की क्रांति का आग़ाज़ east india company के सिपाहियों ने किया। लेकिन जल्द ही इसमें राजे, महाराजे, किसान, जमींदार और आम जन भी शामिल हो गए।

कुमारिल- रण ऐसा भीषण हुआ जैसा भारत में शायद सदियों से नहीं हुआ था। दोनों तरफ से ऐसी क्रूरता देखने को मिली जिसकी गूंज दशकों तक आम जन मानस की स्मृतियों में छप गई। बागियों ने भागते अंग्रेजों की औरतों बच्चों तक का नरसंहार करने से गुरेज नहीं किया। और बदले में अंग्रेजों ने प्रतिशोध का ऐसा नृशंस तांडव किया की उसकी काली छाया हिंदुस्तानियों के हृदय में गहरी समा गई गाँव के गाँव जला दिए गए, राजमार्गों पर सैकड़ो किलोमीटर दोनों ओर मुर्दा स्वतंत्रता सेनानियों की लाशें लटका दी गईं. दिवंगतों के अंतिम संस्कार तक न किए जा सके इसलिए अंग्रेज उनको फांसी देने के बजाय तोप से उड़ा रहे थे।  

धर्मकीर्ति- ब्रिटेन के अखबारों ने हिंदुस्तानियों को एक कट्टर और बर्बर नस्ल के रूप में चित्रित किया जिनके अंदर निहत्थी औरतों और बच्चों तक के लिए कोई करुणा नहीं होती। इंग्लैंड की आम जनता खून की प्यासी हो गई। अखबारों में रोज लेख छपते की भारतीयों को ऐसा सबक सिखाया जाए जो भविष्य में वे आइंदा कभी सिर उठाने की जुर्रत न करें।

कुमारिल- नृशंसता की सारी हदें पार कर देने के बावजूद अंग्रेजों का मन नहीं भरा.भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड Canning को ब्रिटिश प्रेस ने ‘Clemancy Canning’ ‘दरियादिल Canning’ की संज्ञा दे डाली। उनके अनुसार इतनी क्रूरता काफी नहीं थी। भारतीयों का और अधिक दमन होना चाहिए था

धर्मकीर्ति- ब्रिटिश जनता कंपनी राज में भारत के शोषण और आर्थिक दोहनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। वे मानना ही नहीं चाहते थे की आजाद खयाली हम जैसे जंगली और बर्बर लोगों में भी हो सकती है। अंग्रेजी अखबारों ने सारा दोष नई enfield rifle पर मढ़ना चाहा, जिसकी कारतूस को load करने से पहले दांत से काटना पड़ता था. उनके अनुसार गदर मुख्यतः कारतूस के ऊपर गाय और सूअर की चर्बी मढ़ने से हुआ, जिससे हिंदुओं और मुसलमानों की धार्मिक भावना भड़कई।

कुमारिल- खुद को सभ्य साबित करना चाहते थे-  अंग्रेज इतिहासकार और journalists ने गदर को धर्म की लड़ाई के रूप में चित्रित किया. वे मानना चाहते थे की अंग्रेज़ तो हम पिछड़े लोगों को शिक्षित करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन हम सभ्य आचरण के पात्र ही नहीं थे. कोई अंग्रेज मानने को तैयार नहीं था की अंग्रेजी हुकूमत का शोषण विद्रोह का प्रमुख कारण था।

धर्मकीर्ति- हम ऐसा नहीं कहते की दांत से सूअर और गाय की चर्बी काटने के लिए सिपाहियों को मजबूर करना बगावत का कारण नहीं था। यकीनन ये एक बहुत बड़ा तात्कालिक कारण था, लेकिन विद्रोह की चिंगारी कई दशकों से सुलग रही थी। कारण असंख्य थे। लेकिन अंग्रेज केवल भारतीयों की धर्मांधता को कारण मानना चाहते थे। कई अंग्रेज इतिहासकार इस गदर को आज भी दो सभ्यताओं के संग्राम के रूप में प्रस्तुत करते हैं। एक तरफ आधुनिक कानून का राज, और दूसरी तरफ मध्य युगीन निरंकुश सामंती वहशीपना। तात्कालिक अंग्रेजी प्रशासन ‘गुंडे-बदमाश’, असामाजिक तत्व आदि शब्दों का प्रयोग कर गदर को एक law and order problem के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। लेकिन ऐसा नहीं है की अंग्रेजी हुकूमत की असलियत समझने वाले लोग ब्रिटेन में मौजूद नहीं थे। 27 जुलाई 1857 में Britain के भावी प्रधानमंत्री Benjamin Disraeli ने House of Commons में सवाल उठाया की प्रशासन इस गदर को महज सैनिक बगावत क्यों कह रहा है? और August 1857 में कार्ल मार्क्स ने New York Daily Tribune, में लिखा की वे भले ही इसे सैनिक बगावत कह रहे हों, लेकिन सच्चाई तो यही है की ये ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भारत की जनता का पहला स्वतंत्रता संग्राम है।

कुमारिल- यहां शायद कोई ये पूछ बैठे की जब भारत एक राष्ट्र था ही नहीं तो राष्ट्रीय विद्रोह का सवाल कहाँ उठता है. इसका जवाब ज़रा बारीक है. जब तक अंग्रेज़ हम पर राज करने नहीं आए हम भी ठीक से समझ नहीं पाए थे की पूरा हिंदुस्तान कितना एक सा है. जब कंपनी अपने कानून और तौर तरीके लागू करने लगी तब ठीक से एहसास हुआ की हमारी एक अपनी जीवन शैली थी जिसे अंग्रेज़ तोड़ने और बदलने में लगे थे. जब हिन्दू और मुसलमान दीन और धर्म की रक्षा का नारा लगाते अंग्रेज़ उसे धर्मान्धता का नाम देते. दरअसल लड़ाई अपनी संस्कृति बचाने की थी. लोगों के मन में ये बात बैठ गई की अंग्रेज़ मुनाफा छोड़कर किसी चीज का लिहाज़ नहीं करते.

धर्मकीर्ति- ग़दर का मुख्य फैलाव हिंदुस्तानी बोलने वाले इलाकों में था- आज का UP, Bihar, और Madhya Pradesh. अवधी और भोजपुरी बोलने वाले इलाके अपनी सैनिक परंपरा के लिए मशहूर थे. इतिहासकार dirk kolff ने अनुमान लगाया है की इन इलाकों की तकरीबन 10 प्रतिशत आबादी किसी न किसी रूप में सैन्य सेवा या फौज से जुड़ी थी. सिपाही दूर -दूर की रियासतों तक नौकरी करने जाते थे. Dirk kolff के अनुसार 18 वीं सदी में एक तरह का military labor market तैयार हो गया था किसानी के साथ फौजदारी करना आम बात थी और आमदनी का एक अच्छा जरिया भी. मुग़ल सल्तनत के पतन के बाद एक सौ साल युद्ध भी खूब हुए इसलिए seasonal फौजियों का बाजार भी बढ़ता गया.

कुमारिल लेकिन कंपनी के राज ने ये सब बदल दिया. कंपनी ने एक नए तरह का राज, जिसे हम आधुनिक राज्य व्यवस्था कहते हैं बनाना शुरू कर दिया. आपने गौर किया होगा की आधुनिक भारत में देश में एक ही वैधानिक गुंडा है- भारत सरकार। आप चाहे जो भी हों, सशस्त्र बल रखने का अधिकार सरकार के ही पास होता है। लेकिन पुराने जमाने में ऐसी बात नहीं थी। मुग़ल बहुत ताकतवर होते हुए भी केवल शहरों और राजमार्गों पर राज करते थे। ग्रामीण इलाकों में स्थानीय राजाओं और जमींदारों का राज चलता था।

धर्मकीर्ति- और इन सबके अपने-अपने बड़े छोटे दरबार और फौज होती थी, जहां लोग नौकरी करते थे। जंग में जीत मिलने पर लूट का माल भी हाथ लगता था। जब 18 वीं सदी में कंपनी ने अपनी सेना बनानी शुरू की अवध और भोजपुरी इलाके के किसान खुशी-खुशी उसमें शामिल हुए। ये वो समय था जब कंपनी अब भी भारत में अपनी जड़ें मजबूत करने में लगी थी। इसलिए किसानों को रिझाने के लिए कंपनी तनख्वाह भी अच्छी देती थी और सिपाहियों के मान- सम्मान और धार्मिक भावना का भी ध्यान रखती थी। कुछ ही दशकों में कंपनी के पलटन में नौकरी करना प्रतिष्ठा की बात हो गई।

कुमारिल- शुरुआती दौर में कंपनी ने खुद को एक पारंपरिक हिन्दुस्तानी राजा की तरह प्रस्तुत किया। खुद को मुग़ल सल्तनत का ग़ुलाम कहते थे, और फौज की भरती भी हिन्दुस्तानी राजाओं और नवाबों की तरह करते थे। शुरुआत से ही समाज में प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अवध और बिहार से ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार सैनिकों से कंपनी ने अपनी सेना बनाई। फौज में उनके जाति धर्म, छुआछूत, और भोजन संबंधी परहेज का पूरा ध्यान रखा जाता। लेकिन 1820 के बाद सब कुछ बदलने लगा। अब अंग्रेजी हुकूमत में पहले से आत्म-विश्वास अधिक हो गया था। भारतीयों को खुश रखना पहले की तरह जरूरी नहीं लगता था। साथ ही साम्राज्य बनने से अब वे खुद को भारतीयों से श्रेष्ठ समझने लगे थे। अब वे भारतीयों को ग़ुलामों की तरह देखने लगे थे। सेना की salary अब पहली सी नहीं रही। ऊंचे पद सिर्फ गोरों के लिए थे। इन सब बातों से कंपनी फौज के अंदर असंतोष बढ़ता गया। पुराने जमाने में सेवा की शर्तें अच्छी न होने पर किसी और रियासत जाकर नौकरी करने का मौका रहता था। लेकिन कंपनी राज में सब बंद हो रहा था। इतिहासकार राधिका सिंघा ने अपनी किताब ‘A Despotism of Law’ में दिखाया है की 1800-1857 के बीच अंग्रेजी हुकूमत का उद्देश्य खुद को राजनैतिक सत्ता और सैन्य शक्ति के एकमात्र स्त्रोत के रूप में स्थापित करना था। जहां पुराने जमाने में जमींदार साहब का दालान अदालत होती थी और उनका मिजाज कानून, अब वैसी बात नहीं रह गई। ‘कानून का राज’, ‘rule of law’ अंग्रेजी राज का सबसे बड़ा propaganda campaign था। आप चाहे जो भी हों, राजा या रंक, ब्राह्मण या भंगी, कानून सबके लिए एक ही होगा । अंग्रेजों की इस नई कानून व्यवस्था में समाज के कुछर्गों को पूरा विश्वास था, और यही वे लोग भी थे जो या तो बगावत का विरोध कर रहे थे, या चुपचाप तमाशा देख रहे थे।

धर्मकीर्ति- कंपनी राज में व्यापारियों, बिचौलियों, किरानीयों और बाबुओं का एक नया वर्ग तैयार हुआ था. अपनी रोज़ी रोटी के लिए कंपनी पर निर्भर होने के कारण वे स्वभाविक रूप से ग़दर के पक्ष में नहीं थे. लेकिन उनके बीच ऐसे लोग भी थे जो ब्रिटिश कानून व्यवस्था में विश्वास रखते थे. कानून के आगे हर इंसान बराबर हो ये वाकई एक क्रांतिकारी सोच थी.

 कुमारिल तो क्या इसका मतलब अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े हो जाएंगे? ग़ुलाम देश में rule of law लेकर भी क्या करते?

धर्मकीर्ति ग़ुलामी के समर्थक तो वे यक़ीनन नहीं थे, लेकिन राजा और नवाबो का शासन वे देख चुके थे. इतिहास करवट ले रहा था, राजा महाराजा का युग समाप्त हो रहा था ये बात उनमें से कई समझते थे.

कुमारिल और राजा महाराजाओं का ग़दर की ओर क्या रुख रहा?

धर्मकीर्ति- कंपनी एक सौ साल से देश में अपने पैर पसार रही थी. जो लड़ने वाले राजा थे उन्हें कंपनी पहले ही खत्म कर चुकी थी. जो बचे हुए थे अंग्रेज़ों के गद्दी पर बिठाए ग़ुलाम थे, नाम भर के राजा थे. उनका मिज़ाज़ लड़ने वाला था ही नहीं. एक पेशवा नाना साहिब को छोड़ कर किसी बड़े राज परिवार ने ग़दर का समर्थन नहीं किया. रानी लक्ष्मीबाई की रियासत बहुत छोटी थी, और नाना साहिब खुद किसी रियासत के राजा नहीं थे. वे कानपुर में अंग्रेज़ों के pensioner बन कर रह रहे थे।

कुमारिल- अंग्रेजों ने राजा महाराजाओं को लड़ने लायक छोड़ा कहाँ था? न किसी के पास अपनी फौज बची थी और न अंग्रेजों ने उनके पास इतने धन-संसाधन रहने दिए जो वे कंपनी जैसी ताकत से लड़ सकें। बहादुर शाह ज़फ़र को जबरदस्ती कंपनी के बागी सिपाहियों ने अपना नेता घोषित कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई अंतिम समय तक अंग्रेजों को पत्र लिखती रहीं की अगर उनके पुत्र को झांसी की गद्दी सौंप दी जाए तो उनकी कंपनी हुकूमत से कोई रंजिश नहीं। विद्रोह में प्रायः वही राज परिवार शामिल हुए जिन्हें कंपनी ने गद्दी से बेदखल किया था. दर के असली नायक थे कंपनी के बागी सिपाही, किसान और छोटे जमींदार। सबसे ज्यादा बढ़-चढ़ कर अवध के मुस्लिम और राजपूत जमींदारों ने गदर में हिस्सा लिया।

धर्मकीर्ति- अवध के करीब 75000 सिपाही कंपनी की फौज में शामिल थे। अंग्रेज जनरल सर जेम्स औटरम के शब्दों में अवध का कोई ऐसा खेतिहर खानदान नहीं था जिसका कम से कम एक लड़का कंपनी की फौज में न गया हो। जब कंपनी ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह को 1556 में गद्दी से बेदखल किया, इन अवध के सिपाहियों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कंपनी का नया लगान पहले से बहुत ज्यादा था। किसानी बरबादी की कगार पर पहुँच गई। इतिहासकार S B Chaudhuri के शोध नवाब की बेदखली के बाद 1856-57 के बीच सिर्फ एक साल के अंदर अवध के किसानों ने कंपनी प्रशासन को बढ़े हुए लगान के संदर्भ में 14000 अर्जियाँ लिखीं।

कुमारिल- अधिक काबिल न होते हुए भी नवाब वाजिद अली शाह जनता में लोकप्रिय थे। अवध एक समृद्ध प्रांत था, खेती और व्यापार दोनों बढ़ रहे थे, जिसका श्रेय कुछ न करने पर भी नवाब को मिलता। जब अंग्रेजों ने नवाब को कलकत्ता चले जाने के लिए मजबूर किया और लगान बढ़ाने लगे जनता में नवाब के लिए सहानुभूति की लहर उमड़ पड़ी। गाँव-गाँव अफवाह उड़ी की कंपनी के अफसरों ने नवाब की बेगमों के जेवर तक उतरवा लिए। जोगी और फकीर कहते सुने गए की जो telegram line और railway के जाल अंग्रेज बिछा रहे थे, उनका असली काम हिंदुस्तानियों का खून निचोड़ कर ब्रिटेन supply करना था।

धर्मकीर्ति- अफवाह का अलंकार बिल्कुल सटीक था। अंग्रेज खून ही तो निचोड़ रहे थे। इतिहासकार रुद्रांक्षु मुखर्जी केनुसार नवाब को हटाने के बाद जो नई व्यवस्था अंग्रेजों ने बनाई उसके परिणामस्वरूप अवध के तकरीबन आधे जमींदारों और तालुकदारों ने अपनी जमीन और जायदाद खो दी। भारत में इस्लाम के आने से भी पहले से लगान वसूल कर राजा को देना इन ग्रामीण जमींदारों का खानदानी अधिकार था। इनके अपने महल थे, मिट्टी के किले थे और इलाकों में रसूख था। कई जमींदारी खानदान सैकड़ों साल पुराने थे। अब एक झटके में कंपनी हुकूमत ने इनकी साख खत्म कर दी। नए इंतजाम में लगान सीधे किसानों से वसूला जाना था। अवध में जमींदारों और तालुकदारों की अब कोई हैसियत नहीं रह गई। उनके मिट्टी के किले गिरा दिए गए, और स्थानीय शक्ति खत्म कर दी गई। कानून की नजर में कल के राजा, जमींदारों और तालुकदारों की वही हैसियत थी जो एक आम किसान की। अंग्रेजों को उम्मीद थी की सीधा किसानों से लगान वसूलना लोकप्रिय कदम सिद्ध होगा। चूंकि अब जमींदारी बिचौलिये खत्म कर दिए गए थे इसलिए किसानों पर लगान का  बोझ कम पड़ने की उम्मीद थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कंपनी का लालच अपरिमित था। जमींदारी बिचौलियों का कमिशन काट देने पर भी किसानों पर बोझ पहले से बहुत ज्यादा बढ़ गया।

कुमारिल- जमींदारों का ऐसा ही हश्र रुहेलखण्ड में भी हुआ था. केवल 1853 में समय पर लगान न भर पाने के कारण 110,000 acre ज़मीन नीलाम कर दी गई. और ये ज़मीने पड़ी बनियों, महाजनों और साहूकारों के एक नए वर्ग के हाथ में जो कंपनी के पिछलग्गू थे. नई कानून व्यवस्था, कचहरी और वकील भी किसानों की समझ में नहीं आते थे.

धर्मकीर्ति स्वाभाविक तौर पर court कचहरी,, सरकार और साहूकार को लोग एक साथ जोड़ कर देखने लगे. जब विद्रोह शुरू हुआ, अंग्रेजी अफसरों को निपटाने के बाद किसान अंग्रेज़ों के साथ क़ाम करने वाले महाजनों और साहूकारों पर टूट पड़े.

कुमारिल इतिहासकार eric stokes बताते हैं की आखिरकार कंपनी के सिपाही uniform पहने किसान ही थे. जब किसानी बर्बाद हुई, कंपनी के सिपाही भी बागी हो गए.

धर्मकीर्ति तो कुल मिला कर सन 57 के ग़दर को कैसे समझा जाए?

कुमारिल शुरुआती भारतीय इतिहासकार अंग्रेजी प्रशासन के प्रभाव में थे इसलिए बहुत कुछ उन्होंने अंग्रेजी propaganda ही अपने शोध में दोहराया. इतिहासकार S N Sen  कहते हैं की गदर की शुरुआत बागी कंपनी सिपाहियों ने की, और जब कानून व्यवस्था ध्वस्त हो गई, समाज के गुंडे बदमाश, और असामाजिक तत्व मौके का फायदा उठाने के लिए उसमें शामिल हो गए.

तकरीबन ऐसी ही बात RC Majumdar भी लिखते हैं शुरुआत सैनिक बगावत से हुई, और अराजक तत्व बाद में इसमें शामिल हो गए.

वीर सावरकर ऐसे पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने 1909 में लिखी अपनी किताब में ग़दर को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा.

धर्मकीर्ति ब्रिटिश इतिहासकार thomas metcalf ने थोड़ी बीच की line ली है. वे इस गदर को महज़ सैनिक बगावत नहीं मानते, लेकिन इसको भारत का राष्ट्रीय विद्रोह मानने से कतराते हैं. ये सही है की ग़दर अधिकांश हिंदी भाषी क्षेत्रों तक सीमित रहा. पंजाबी बागी सिपाहियों से नफरत करते थे, चुंकि सिर्फ एक दशक पहले इन्हीं सिपाहियों ने पंजाब कंपनी के लिए जीता था. राजपूताना तकरीबन शांत रहा, और बंगाल और दक्षिण भारत में भी इसका कोई ख़ास प्रभाव नहीं रहा.

कुमारिल पूरे भारत में फैलाव न होना असफलता का भी कारण था, और इस तर्क का आधार भी की 57 का विद्रोह कोई राष्ट्रीय आंदोलन नहीं था. लेकिन आधुनिक इतिहासकार इसके बावजूद इसको केवल गुंडे बदमाशों और अराजक तत्वों का उत्पात मानने के लिए तैयार नहीं.

धर्मकीर्ति जैसे की इतिहासकार गौतम भद्र कहते हैं, इतना तो तय था की विदेशियों को भगाना है, जो हमारी परंपरा और रिवाज़ो को तबाह कर रहे थे, लेकिन उनके जाने के बाद क्या बनाना है ये बात अभी स्पष्ट नहीं थी, और शायद यही कारण था की कई समूह मूक दर्शक बन कर ग़दर को देखते रहे. इतिहासकार CA Bayly के अनुसार ग़दर एक नहीं, कई विद्रोहों का समावेश था. सबकी अंग्रेजी हुकूमत से अपनी-अपनी रंजिश थी. सब कुछ तहस नहस हो रहा है ये भावना हिन्दुस्तानियों के मन में भीतर तक घर कर गई थी, इसलिए आपसी मतभेद भुला कर फिलहाल कंपनी को बाहर खदेड़ देने को प्राथमिक कार्य समझा गया.

कुमारिल विद्रोहियों के पास युद्ध जीतने के बाद क्या करना है इसका कोई ख़ास program नहीं था. फिरंगी भगाओ उनका एक मात्र नारा था.

धर्मकीर्ति न हम संख्या बल में कम थे और न बहादुरी में, और हथियार भी हमारे पास वैसे ही थे जैसे अंग्रेज़ों के पास, फिर हार कैसे गए?

कुमारिल अंग्रेज़ इतिहासकारों ने कई तरह के कारण समझाए हैं, लेकिन सच तो ये है की अपने साम्राज्य को फिर से जीतने के लिए अंग्रेज़ों ने अपना पूरा ज़ोर लगा दिया. बहुत मज़बूत होते हुए भी हम उनसे कमज़ोर साबित हुए.

धर्मकीर्ति और स्वराज का दिवा स्वप्न एक सदी के लिए अस्त हो गया. UP और bihar के लोग भूल ही गए की उनके पूर्वज फौजी हुआ करते थे. इस ग़दर के बाद अंग्रेज़ जाट, सिख और गुरखा सिपाहियों की भर्ती अधिक करने लगे. हिंदी भाषी इलाकों की सैनिक परंपरा एक लंबे समय के लिए भुला दी गई.

कुमारिल राज परिवार भी अस्त हो गए. ये ग़दर राजतन्त्र को वापस स्थापित करने की आख़िरी कोशिश थी. इसके आगे राजा महाराजा museum के exhibit बन कर रह गए, जिनका ऐतिहासिक रोल समाप्त हो चुका था.

धर्मकीर्ति ये तो होना ही था. जब काल कुछ तय कर लेता है, तो किसी इंसान का बस नहीं चलता. राजतन्त्र का युग समाप्त हो रहा था. अगर अंग्रेज़ नहीं ख़त्म करते तो भारत के लोग करते. जो होना था हुआ.

कुमारिल न राजा रहेगा न रानी रहेगी. ये दुनिया है फानी फानी रहेगी.

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