नमस्कार मित्रों , स्वागत है आपका भारत की कहानी में . क ्या हो अगर आपकी बहस किसी ऐसे आदमी से हो जाए जिसकी विचारधारा ठीक आपसे विपरीत हो ? अधिकांश सभ्य लोग , ‘ चलिए आप अपनी जगह ठीक , मैं अपनी जगह’ , या ‘ let’s agree to disagree जैसी बातें बोल कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन जैन अनेकांतवाद यहीं से शुरू होता है। ‘आप अपनी जगह ठीक और मैं अपनी जगह ठीक’ कहना काफी नहीं ; चूंकि हम निकले तो सत्य की तलाश में थे। ‘ Let’s agree to disagree’ बोलने वाले प्रतिद्वंद्वी का सम्मान करने का ढोंग जरूर कर सकते हैं , लेकिन मन ही मन उनको ये विश्वास भी रहता है की सामने वाला या तो मूर्ख है या झूठ बोल रहा है। अनेकांतवादी पूछते हैं , आखिर ऐसा क्यों है की कुछ विशुद्ध मन और निःस्वार्थ लोग सत्य को एक रूप में देखते हैं और उतने ही सत्यनिष्ठ लोग दूसरे रूप में ? बड़े-बड़े ज्ञानी जो सृष्टि के रहस्य को समझने का दावा करते हैं , विपक्षी खेमे के छोटे-छोटे प्रत्यक्ष सत्यों को भी स्वीकार नहीं कर पाते . जैन अनेकांतवाद के अनुसार इसका कारण तार्किक चरमपंथ है। महावीर का अनेकांतवाद हर प्रकार के कठमुल्लापन और जड़ता को घातक...
Inspired by Amar Chitra Katha; Backed by Solid Evidence