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मुग़ल साम्राज्य के पतन के कारण


नमस्कार!

्वागत है आपका भारत की कहानी में. आज की हमारी बहस का विषय है मुग़ल साम्राज्य का पतन.

मैं कुमारिल भट्ट right wing पक्ष रखूँगा और मेरे प्रतिद्वंदी धर्मकीर्ति वामपंथियों का पक्ष रखेंगे.

धर्मकीर्ति - आपका स्वागत है. उम्मीद है की आज की बहस रोचक और ज्ञान वर्धक सिद्ध होगी. आप शुरू करिए कुमारिल.

कुमारिल - जी ज़रूर.

इस्लामी मुग़ल साम्राज्य की नींव 1526 में मध्य एशिया के एक बर्बर डकैत बाबर ने रखी. माँ की तरफ से चंगेज़ खान का वंशज़ और बाप की ओर से लूटेरे तैमूर लंग का प्रपौत्र. DNA में ही खून खराबा था . करीब 200 साल बाबर के वंशजों ने दिल्ली पर राज किया. लेकिन 18वीं सदी का मध्य आते-आते साम्राज्य की हवा निकलने लगी. पराजय के बावजूद हिन्दू हृदय ने कभी हार नहीं मानी. अकबर की फूट डालो राज करो की नीति ने कुछ confusion फैलाया. लेकिन जब औरग़ज़ेब ने मंदिर तोड़े और जज़िया लगाया, छत्रपति शिवाजी ने विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. देश के कोने-कोने से बाँके वीर उठ खड़े हुए. पंजाब के सिखों, मथुरा के जाटों, और मराठा वीरों ने यवन सेना को छठी का दूध याद दिला दिया. बुंदेले और राजपूत भी उठ खड़े हुए. बूढा औरंगज़ेब एक विद्रोह दबाता तो दूसरा भड़क उठता. रक्तबीज की भाँति हिन्दू प्रतिरोध का दावानल दिन प्रतिदिन बढ़ता गया. शाही खज़ाना खाली होने लगा, सेना का मनोबल टूटने लगा, और सबसे बड़ी बात, शिवाजी महाराज, बंदा बहादुर जैसों की वीरता ने हिन्दू प्रजा में विश्वास जगाया की मुग़ल हराए और खदेड़े जा सकते हैं. हालांकि की दिल्ली में मुग़ल 1857 तक बने रहे, लेकिन सिर्फ नाम भर के लिए. उनकी शक्ति तो 100 साल पहले ही ख़त्म हो चुकी थी.

धर्मकीर्ति हिंदूवादी इतिहासकार जदुनाथ सरकार इस बारे में क्या कहते हैं?

कुमारिल यही बातें. और ये भी जोड़ते हैं की औरग़ज़ेब के बाद के बादशाहों का कमपढ़, मूर्ख, नशेड़ी और ठरकी होना भी अन्य कारण थे. हज़ारों स्त्रियों को हरम में रखते थे, अफीमची सब के सब मुग़ल बादशाह थे, अकबर और औरंज़ेब को छोड़ कर. और इतने से भी मन नहीं भरता था तो नवाबी शौक भी पालते थे.

धर्मकीर्ति तो क्या राजपूती रानीवास औरतों से नहीं भरे पड़े थे? और नवाबी शौक में क्या बुराई है. अब तो देश में गैर कानूनी भी नहीं है

कुमारिल लेकिन बादशाहत ऐसे नहीं चलती. जब सड़क चलते कवि मुग़ल बादशाह के नवाबी शौकों पर कविताएं बना कर चुटकी लेने लगे तो मुग़ल साम्राज्य की क्या हैसियत रह गई? जनता के बीच शाही खौफ ख़त्म हो गया.

धर्मकीर्ति तो औरग़ज़ेब के उत्तराधिकारियों का कमज़ोर चरित्र और किसान विद्रोह मुग़ल साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण थे?

कुमारिल किसान नहीं सताए हुए स्वाभिमानी हिन्दू. और मुग़ल राज करने लायक़ थे भी कहाँ? मध्य-एशिया के जंगली थे. पहले बाप के मरने का इंतज़ार करते थे, लेकिन औरंगज़ेब ने तो जीते जी अपने पिता शाहजहाँ को बंदी बना लिया. बादशाहत के लिए सैकड़ों युद्ध हुए. शहजादों की लड़ाई में लाखों आम सिपाही मारे जाते, खज़ाना खाली होता. ये सब पतन के कारण इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने बताए हैं.

धर्मकीर्ति -सर जदुनाथ सरकार कहिये. हिन्दू वादियों की सारी लड़ाई इस्लाम से ही रहती है. अंग्रेज़ों से सर की उपाधि लेने में कोई परेशानी नहीं आती.

कुमारिल -लीजिये अब पढ़ने लिखने के लिए भी पुरस्कार नहीं लिए जा सकते. निजी आक्षेप करने में कुछ नहीं रखा. आप अपनी बात कहिये.

धर्मकीर्ति- मराठो के बारे में तो हिंदूवादी सर जदुनाथ सरकार ने खूब लिखा है. लूटना जानते थे लेकिन राज करना नहीं. शिवाजी महाराज की guerilla रणनीति ने पूरे दक्कन का बेड़ा-गर्ग कर दिया. कहाँ भारत सोने की चिड़िया कहलाता था. और 18वीं शताब्दी आते-आते चारों ओर दरिदरी छाने लगी. तब के वाकिया नवीस जो चित्र प्रस्तुत करते हैं उससे समझ आता है की मराठो का अपने लड़ाकों पर उतना ही नियंत्रण था जितना आज के माओवादियों का अपने डकैतों पर. हज़ारों की तादाद में बारगीरों के लश्कर देश भर में उत्पात मचाने लगे. क़ाम-धंधे और व्यापार उजड़ गए. अगर मराठे खुद भी राजा बन जाते तो क्या दिक्कत थी? लेकिन नहीं, मुग़ल साम्राज्य को बर्बाद करते रहे और खुद आपस में लड़ मरे. फायदा केवल east india company का हुआ.

कुमारिल चलो वामपंथियों ने माना तो की मुग़लों को शिवाजी ने खड़ेदा. तब मराठा थोड़े ही जानते थे की भविष्य में अंग्रेज़ राज करेंगे. अपने स्वाभिमान और स्वराज के लिए लड़ रहे थे. और असली चोट तो मुग़ल साम्राज्य को फारस के डकैत नादिर शाह और अफगानी अहमद शाह अब्दाली ने दी. अपनों ने लूटा हमें गैरों मे क्या दम था. डकैतों की मंडली का अंत में हश्र यही होता है. आपस में लड़ मरे और दोष हुआ हमारा. और फिर अफगानों को दिल्ली से भगाने के लिए मुग़लों ने मदद मांगी भी तो मराठो से. वो तो अब्दाली से हम मराठा 1761 में पानीपत में हार गए. नहीं तो हिन्दू पदशाही को कौन रोक सकता था?

धर्मकीर्ति पहले ही फैसला सुनाने लगे गुरु? या वामपंथी इतिहासकारों की भी सुनोगे?

कुमारिल आप सुनाए बिना रहेंगे क्या?

धर्मकीर्ति आपकी परेशानी है की आप केवल नायकों से इतिहास समझते हैं. काबिल लोगों की कभी कमी नहीं होती. बादशाह निकम्मे साबित हुए तो क्या हुआ? 18वीं सदी के मुग़ल साम्राज्य में ऊर्जावान और कर्मठ लोगों की कोई कमी नहीं थी- निज़ाम उल मुल्क (जिसने हैदराबाद रियासत की नींव रखी), पहले एक धुरंधर मुग़ल general था. अब्दुस समद खान, ज़कारिया खान, सादत खान, मुर्शिद क़ुली खान, और सवाई जय सिंह जैसे सूरमा मुग़ल सेना में मौजूद थे और राज काज संभाल रहे थे. इसलिए केवल ऐसा कहना की अचानक लायक़ लोग कम पड़ गए कुछ ठीक नहीं लगता.

कुमारिल -लगता है आप perceival spear की किताब पढ़ कर आए हैं? अंग्रेज़ इतिहासकार हमारा इतिहास क्या समझेंगे? ये सब थे बड़े बड़े सूरमा, और मुग़लों की नौकरी भी करते थे, लेकिन जैसे ही इनको लगा की तख़्त कमज़ोर पड़ रहा है, इन्होंने हैदराबाद, अवध, दक्कन, बंगाल, राजपूताना और पंजाब में अपना-अपना राज बनाना शुरू कर दिया.

धर्मकीर्ति- जो मनसबदार दो सदियों तक मुग़ल साम्राज्य का इक़बाल बुलंद करते रहे, वे औरग़ज़ेब के बाद बागी क्यों हो गए? कुछ तो बदल गया होगा?

कुमारिल नहीं बदल पाना ही तो सल्तनत की असल परेशानी थी. अकबर ने एक मज़बूत डकैतों के गिरोह की नींव डाली थी. सल्तनत को एक war machine की तरह गठित किया गया था. खेती योग्य सारी भूमि बादशाह और मनसबदारों के बीच बाँटी गई थी. भूमि से जो राजस्व आता उससे बादशाह शाही सेना और मनसबदार अपने लश्कर को salary देते थे और अपना खज़ाना भी भरते. लेकिन औरंगज़ेब का काल आते-आते ज़मीन कम पड़ने लगी और नौकरी मांगने वाले अधिक हो गए. पुराने मनसबदारों के नवाबज़ादे मनसब पाने की आशा में औरग़ज़ेब को दरख्वास्त पर दरख्वास्त भेजते, और औरग़ज़ेब कहता की एक अनार और सौ बीमार. इतनी ज़मीन थी ही नहीं जितने नौकरी पाने वाले तैयार हो गए थे.

धर्मकीर्ति अब आए आप असली इतिहास पर- साम्राज्य के structural problems. अकबर के काल में मनसबदारों के तीन ही समूह थे मध्य एशिया से आए सुन्नी तुरानी, ईरानी शिया और देसी राजपूत. इनमें धीरे-धीरे भारतीय मुसलमान और अफगान भी शामिल हो गए. परेशानी तो शाहजहां के समय ही शुरू हो चुकी थी, पर औरंगज़ेब के समय दो और समूह सरकारी नौकरी के दावेदार बन गए -मराठा और दक्कन के मुसलमान.

कुमारिल -बिलकुल ठीक. मुग़ल साम्राज्य कभी लड़ता थोड़े ही था. जो बागी बना उसे मनसब देकर शाही नौकर बना लेते थे. औरंगज़ेब ने दक्कन में जब बीजापुर और गोलकुंडा जीता तब इन दो सल्तनतों के अफसर मुग़ल मनसबदार बन गए. और सबकी उम्मीद पहले से ज्यादा तनख्वाह पाने की ही थी. लेकिन असली परेशानी तो मराठो ने खड़ी की. शिवाजी को अलग थलग करने के लिए औरंगज़ेब मराठे सरदारों को मुग़ल सेना मे भरता गया. कल के टुटपूंजीया मराठी जमींदार रातों रात शाही अफसर बना दिए गए. और ऐसे समय मे जब पुराने राजपूत और इस्लामी खानदानों के लड़के नौकरी के लिए मारे-मारे फिर रहे थे.

धर्मकीर्ति- ऐसे मे बगावत पनपना तो लाज़मी था. ईरानी, तुरानी, राजपूत, मराठा सरदारों ने अपनी-अपनी lobby बना ली. दरबार षड़यन्त्रों का अड्डा बन गया. निज़ाम उल मुल्क और मुर्शिद क़ुली खान जैसे अफसर तो इस गंदी राजनीति से परेशान होकर दरबार छोड़ कर चले गए, और सुदूर प्रांतो मे अपना स्वतंत्र राज बनाने में लग गए. Satish Chandra ने अपनी किताब parties and politics in the mughal court में साम्राज्य के भीतर के इस अंतर कलह और मनसब की किल्लत पर खूब विस्तार से लिखा है.

कुमारिल वामपंथी हर जगह structure /process खोजते रहते हैं. सिद्धांत झाड़ना तुम्हारी आदत है. ज़मीन की कमी का असली कारण क्यों नहीं बताते? गोलकुंडा और बीजापुर तो समृद्ध प्रांत थे. इतिहासकार JF Richards ने अपने शोध मे बताया है की ज़मीन और revenue बढ़ ही रहे थे, लेकिन इसका लाभ नवाबजादों को नहीं मिल पा रहा था. और कारण था औरंगजेब. सारी नई ज़मीन शाही मद में रखवा ली, ताकि अपने महंगे युद्ध चला सके. अगर नौकरी मांगने वालों की संख्या बढ़ गई तो मुग़ल सल्तनत का revenue भी बढ़ा था. लेकिन खर्च हो रहा था मराठो से युद्ध में.

धर्मकीर्ति शिवाजी महाराज का विनाशकारी युद्ध कहिए. उनकी निजी महत्वकांक्षा को आप बेजा ही हिन्दू स्वाभिमान का नाम देते हैं. युद्ध से कभी भला नहीं हुआ. मैं तो मुग़ल साम्राज्य को भारत का साम्राज्य मानता हूं. उनके पतन का सीधा परिणाम अंग्रेज़ों की ग़ुलामी था.

कुमारिल जब मुग़लों ने हमारे स्वाभिमान पर हमला किया वे अंग्रेज़ों से अच्छे कहाँ रह गए.  काशी और मथुरा के मंदिर औरंगजेब ने तुड़वाए क्या हम भूल जाएं इस बात को?

धर्मकीर्ति मंदिर तुड़वाना बहुत बड़ी भूल थी. युद्ध के नियम और होते हैं, लेकिन इसके बावजूद धार्मिक प्रतीकों की गरिमा की रक्षा करनी चाहिए. मथुरा के जाटों ने अकबर की क़ब्र खोद डाली, उसके अस्थि पंजर कुत्तों को खिला दिए और क़ब्र पर लिख दिया, ‘अब बताओ दुनिया का बादशाह कौन’?

 कुमारिल -हँसता है.

धर्मकीर्ति लेकिन इसमें दो राय नहीं की मुग़ल राज्य का लगान चुकाना किसानों को भारी पड़ रहा था. मार्क्सवादी इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने अपनी पुस्तक मुग़ल agrarian system में विस्तार से किसान विद्रोहों का अध्ययन किया है. मनसबदार अपनी ज़मीनी जड़ मज़बूत कर विद्रोह का मंसूबा न बाँध सकें इसलिए अकबर ने ऐसा इंतज़ाम कर दिया था की हर 3-5 साल पर शाही अफसरों का दूर दराज़ इलाकों मे transfer कर दिया जाता. ये व्यवस्था विद्रोह की रोकथाम मे ज़रूर कारगर सिद्ध हुई, लेकिन किसानों पर बड़ी भारी पड़ी. अपनी तीन पांच साल की posting में मनसबदार जितना हो सके उतना पैसा किसानों से ऐंठ लेने की कोशिश में रहते. खेती किसानी के long term development में किसी का interest नहीं था. आप ही सोचिये, कम किसानी वाले प्रांत राजस्थान के जिले जिले इतने ऐतिहासिक मह, किले और प्रासाद बने हुए हैं, जबकि सबसे ज्यादा किसानी वाले UP और Bihar में महल नदारद. आखिर ऐसा क्यों है? पूरे राजस्थान के राजपूत मुग़लों का भाला बने हुए थे. देश भर से लगान वसूल वसूल कर राजपूताना ले जा रहे थे. विद्रोह तो पनपना लाज़मी था.

कुमारिल तो क्या सिर्फ राजपूत लूट रहे थे?

धर्मकीर्ति लूट चाहे जो भी रहा हो, आखिर देश का पैसा देश में ही जा रहा था. अंग्रेज़ों की तरह बाहर तो नहीं ले जा रहे थे.

कुमारिल -लेकिन क्या मार्क्सवादी इतिहासकारों की आलोचना नहीं हुई है? Chicago university के इतिहासकार मुजफ्फर आलम ने पंजाब और अवध के किसान विद्रोहों पर right wing perspective से कुछ और निष्कर्ष निकाला है. मार्क्सवादी इतिहासकार मान कर चलते हैं की लगान की दबाई जनता करो या मरो की स्थिति पर पहुँच जाने पर विद्रोह करती थी. लेकिन अवध और पंजाब के इलाकों से तो किसानों और ग्रामीण जमींदारों की बढ़ती समृद्धि और ताकत का पता चलता है. जो जमींदार पहले शाही अमीलों से थर थर काँपते थे, वे औरंगजेब का काल आते आते लगान भरने से सीधा इंकार करने लगे. अब गाँव गाँव बन्दूके बनाई जा रही थीं. मथुरा के जाट बंदूक लेकर खेतों मे जाते थे. शाही फौजदार को हर बार लगान वसूलने के लिए युद्ध करना पड़ता. मथुरा के एक राजपूत फौजदार के अनुसार जब तक मर्द एक बंदूक से निशाना साधते, उनकी औरतें दूसरी बंदूक में बारूद भर्ती. ऐसे इलाकों मे tax वसूलना असंभव सा कार्य हो गया. अगर औरग़ज़ेब रियायत बरतता तो नए इलाके बागी हो जाते. और दमन करता तो भी और विद्रोह होते.

धर्मकीर्ति पूरा साम्राज्य एक पतन के vicious cycle मे समा गया. मनसबदार tax न वसूल पाने पर फौज भी घटिया रखने लगे. विदेशों से मंगवाए घोड़ों की जगह तुट्टूओं ने ले ली. तोपखाना पुराना और बेकार होने लगा. सल्तनत को कमज़ोर जान कर मराठा दिल्ली तक लूट पाट करने लगे. लूट पाट न करने के बदले चौथ और सरदेसमुखी नाम के दो tax लगाते. जब मुग़ल फौजदार मराठो से बचाने मे कारगर नहीं रह गए तो किसान भी tax मराठो को ही देने लगे. धीरे-धीरे देश समझो एक तरह से मुग़ल सल्तनत को निगल गया. मराठे महाराष्ट्र और मध्यभारत पर काबिज़ हो गए, बंगाल मुर्शिदक़ुली खान नाम के नवाब के हाथ गया, हैदराबाद में निज़ाम, और अवध में शिया नवाब जम गया. इन क्षेत्रीय रियासतों ने जमींदारों और किसानों के साथ नया समझौता कर लिया और मुग़ल बादशाह नाम के सम्राट रह गए, जिनका शासन दिल्ली से पालम.

कुमारिल मध्ययुगीन बर्बर प्रशासन का अंत होना लाज़मी था. ऐसा पतन हर मध्ययुगीन साम्राज्य में 18वीं सदी के बाद देखने को मिलता है. तुर्की के ottoman, iran के सफावी, रूस के ज़ार और चीन का साम्राज्य भी पतनोन्मुख हो गए. नए ज़माने में नई शासन प्रणाली की ज़रूरत थी. जिसने खुद को बदल लिया उसने दुनिया पर राज किया, जो न बदल सके मुग़लों की तरह काल के ग्रास मे समा गए.

धर्मकीर्ति सही पकड़े हैं कुमारिल. काल के ग्रास से कौन बच सका है. जब सही समय आ गया मुग़ल साम्राज्य का अंत हो गया. मराठा वे न कर सके जो इतिहास को दरकार थी, इसलिए हम ग़ुलाम बने. आधुनिक यूरोपियन पद्द्ति का राज स्थापित करने के कोशिश करने वाले भी हुए टीपू सुल्तान ने कोशिश की, महाराजा रणजीत सिंह ने यूरोपन style का तोपखाना और rifle infantry बनाई, कुछ हद तक इंदौर के होल्कर ने कोशिश की, लेकिन east india company जैसे अंतरराष्ट्रीय corporation की शक्ति के सामने वे बहुत छोटे सिद्ध हुए. अगर मुग़ल राज्य का ही समय रहते आधुनिकरण हो जाता तो हम एक विश्व शक्ति बने रहते.

कुमारिल -और हमारे मंदिर भी टूटते रहते. जो होना था हो गया. भारत खंड होना था ही गया. अब तो भविष्य की ओर ही देखने में भलाई है.

धर्मकीर्ति जी बिलकुल कुमारिल. न भूतो न भविष्ययति तो हमारा सबसे प्राचीन मंत्र है.

 

 

 

 

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