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महावीर जैन का दर्शन क्या है? अनेकांतवाद का एक संक्षिप्त परिचय

 

नमस्कार मित्रों, स्वागत है आपका भारत की कहानी में.

्या हो अगर आपकी बहस किसी ऐसे आदमी से हो जाए जिसकी विचारधारा ठीक आपसे विपरीत हो? अधिकांश सभ्य लोग, ‘चलिए आप अपनी जगह ठीक, मैं अपनी जगह’, या ‘let’s agree to disagree जैसी बातें बोल कर आगे बढ़ जाते हैं।  लेकिन जैन अनेकांतवाद यहीं से शुरू होता है। ‘आप अपनी जगह ठीक और मैं अपनी जगह ठीक’ कहना काफी नहीं; चूंकि हम निकले तो सत्य की तलाश में थे। ‘Let’s agree to disagree’ बोलने वाले प्रतिद्वंद्वी का सम्मान करने का ढोंग जरूर कर सकते हैं, लेकिन मन ही मन उनको ये विश्वास भी रहता है की सामने वाला या तो मूर्ख है या झूठ बोल रहा है। अनेकांतवादी पूछते हैं, आखिर ऐसा क्यों है की कुछ विशुद्ध मन और निःस्वार्थ लोग सत्य को एक रूप में देखते हैं और उतने ही सत्यनिष्ठ लोग दूसरे रूप में? बड़े-बड़े ज्ञानी जो सृष्टि के रहस्य को समझने का दावा करते हैं, विपक्षी खेमे के छोटे-छोटे प्रत्यक्ष सत्यों को भी स्वीकार नहीं कर पाते. जैन अनेकांतवाद के अनुसार इसका कारण तार्किक चरमपंथ है। महावीर का अनेकांतवाद हर प्रकार के कठमुल्लापन और जड़ता को घातक मानता है। अनेकांतवाद एकतरफा तर्क से बचने का मार्ग है। इसके अनुसार यथार्थ बहुआयामी है। उसे किसी एक दृष्टिकोण से नहीं समझा जा सकता।

तर्क धर्म को समझने में सहायक है, लेकिन कई लोग इसका प्रयोग प्रतिद्वंद्वी पक्ष की छाती पर विजय पताका फहराने के लिए करते हैं। इसलिए महावीर कहते थे की तर्क का प्रयोग बड़ी सावधानी, करुणा और एक विशिष्ट पद्धति से किया जाना चाहिए- जिसे वे अनेकांतवाद का नाम देते हैं।

अनेकांतवाद के अनुसार किसी सिद्धांत या तर्क को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता। हर उक्ति और तर्क के बाद शायद या कदाचित लगाना जरूरी है। ऐसा कोई तर्क नहीं बना जिसकी काट मौजूद न हो। अंतिम सत्यों की घोषणा करने वाले या तो अज्ञानी होते हैं या फिर दंभी अहंकारी।

जैन तीर्थंकर परंपरा बड़ी प्राचीन है। महावीर बुद्ध के समकालीन थे। उनके पीछे तीर्थंकरों का एक लंबा सिलसिला रहा है। जैन पंडित मानते हैं की जैन परंपरा वेदों से भी पुरानी है।

दया और करुणा जैन मत के मुख्य भाव हैं। इस सृष्टि में किसी जीव को खुद से कम नहीं समझना चाहिए। तर्क जहां से भी आए उसको उतनी ही गंभीरता से लेना चाहिए जितनी गंभीरता से हम अपने धार्मिक विचारों को लेते हैं। महावीर का अनेकांतवाद इस मामले में आधुनिक liberalism से कहीं अधिक उदार और नैतिक है।

ये सब सुन कर श्रोता ऐसा निष्कर्ष न निकाल लें की महावीर सिर्फ मीठी-मीठी सदाचार की बातें बतलाते थे। अनेकांतवाद एक गंभीर दर्शन है; इसका दखल प्राचीन भारत के हर वाद-विवाद में रहा है। किसी एक विडिओ में इस दर्शन के सभी आयामों पर चर्चा कर पाना एक दुष्कर कार्य है। इसलिए यहाँ हम कुछ चुने हुए प्रश्नों पर वेदान्त और बौद्ध मतों के समानांतर महावीर के विचारों को रख कर, उन्हें समझने का प्रयास करेंगे।

प्राचीन भारत में सृष्टि को समझने के दो प्रमुख दृष्टिकोण थे- सामान्य गामिनी और विशेष गामिनी।

सामान्य गामिनी दृष्टिकोण का ध्यान समानताओं पर है और विशेष गामिनी दृष्टिकोण का विभिन्नताओं पर।

पहला दृष्टिकोण वेदान्त का है, जो समानताएँ देखते-देखते अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचता है की सृष्टि के आधार में कोई एक ही चीज है जो अलग-अलग रूप में दिखाई दे रही है। हर प्रतीति के पीछे एक ही तत्व मौजूद है। आप चाहें तो उसे ब्रह्म कहें, या फिर कृष्ण। जो सृष्टि हम देखते हैं वह ब्रह्म के रूप परिवर्तन का परिणाम है।

मतलब जो हम देख या सुन रहे हैं वह सत्य नहीं है. उसका पूरा अर्थ माया के पीछे के सत्य में छुपा है-  जो सभी अर्थो का परम अर्थ,  मतलब परमार्थ है.

ये दृष्टिकोण time और space दोनों पर लागू किया जा सकता है-

Time में दिखाई देने वाली विभिन्नताओं को देखिए– पहले एक बीज था, जो समय बीतने पर वृक्ष बन गया। क्या बीज और वृक्ष एक ही हैं? इस दृष्टिकोण के अनुसार उत्तर होगा हाँ। बस रूप बदल गया बात एक ही है।

अब space में विभिन्नताओंो देखिए- मतलब जगह बदलने से जो विभिन्नताएँ दिखाई देती हैं। अभी आप अपनी screen देख रहे हैं। हिमालय की ओर जाएंगे तो पहाड़ दिखाई देंगे। अगर हर तरफ ब्रह्म है तो सब कुछ एक सा क्यों दिखाई नहीं देता? वेदान्त के अनुसार अज्ञान और माया दृष्टि का विकार हमें अलग-अलग दृश्य दिखाता है, लेकिन दरअसल हर तरफ एक मात्र ब्रह्म ही मौजूद है।

इस दृष्टिकोण के विपरीत बौद्ध दृष्टि हर तरफ विभिन्नताएँ देखती है। कोई दो पेड़ एक से नहीं। आप पेड़ को सटीकता से ैसे परिभाषित करेंगे? हमारी दुनिया में कोई चीज किसी दूसरी चीज के जैसी नहीं। बौद्ध ृष्टि में हमारी सृष्टि अलग-अलग तरह की चीजों को जोड़ कर बनी एक पुंज है। इन सब के पीछे किसी मूल तत्व या ईश्वर की गति को देखने का कोई तार्किक कारण नहीं।

बौद्ध दृष्टिकोण हर प्रकार के generalization को दृष्टि का विकार मानता है। दुनिया बेतरतीब है, इसमें तरतीब हम मानव अपनी सुविधाओं और रुझान से भरते हैं. उदाहरण के लिएप व्यवहार की दृष्टि से जरूर एक समुदाय को परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन साथ ही हम ये भी जानते हैं की कोई दो मानव एक जैसे नहीं, हर आदमी अपने जैसा ही है. सृष्टि में समानता और परिभाषाएं हमारी दृष्टि स्थापित करती है.

यहाँ अनेकांतवादी इस बात को नोट करते हैं की वेदान्ती और बौद्धधर्मी दोनों चलते तो विपरीत दिशाओं में हैं, लेकिन अंत में पहुँचते इसी निर्णय पर हैं की शब्दों और तर्क से कही हर बात आखिर शून्य/zero ही हो जाती है। वेदान्त के अनुसार भले दिखाई पहाड़ दे रहे हों, लेकिन उनका परमार्थ कुछ और ही है। बौद्ध मत के अनुसार मानव दृष्टि चीजों में परिभाषा भरती है; हमारी इन्द्रियां हमें किसी चीज के बारे में 4-5 बातें बता सकती हैं, लेकिन उसका असली रूप हम नही देख पाते।

अनेकांतवाद देखता है की बौद्ध मत और वेदान्त दोनों में हम जो देख सुन रहे हैं वह अनिर्वचनीय है, मतलब शब्दों में कहा नहीं जा सकता। अपने आप में किसी वस्तु का स्वभाव परिभाषित करना दोनों के अनुसार असंभव है; हमारे शब्द परिभाषा गढ़ते हैं लेकिन यथार्थ तक नहीं पहुँच पाते.

महावीर ऐसी बहस को वादलीला, मतलब बेकार की बहस मानते हैं। एकांत में अपना ही राग अलापना बेकार की बात है। हर तर्क कुछ हद तक, और कुछ परिस्थितियों में सही होता है। सत्य का एक अंश हर तर्क में होता है। अनेकांतवादी चाहते हैं की सत्य के हर भाग को ग्रहण करें, प्रत्येक दृष्टि को आत्मसात करें। महावीर के अनुसार सत्य एक माला की तरह है जिसमें अलग-अलग तरह के तर्क और विचार पिरोये होते हैं। इसे वे पूर्ण-सत्य-रूप-विचार-सूत्र कहते हैं। 

किसी भी अनुभूति को पूरी तरह से सही या गलत नहीं कहा जा सकता। हर प्रमाण आंशिक है, और हर तर्क अर्ध-सत्य है।

जैन मत के अनुसार अद्वैत और द्वैत दर्शन में कोई मतभेद नहीं। सृष्टि का एक होना भी सत्य है और इसकी विभिन्नता भी सत्य है।

किसी विशाल जलराशि को सागर कहना भी गलत नहीं और बूंदों का जमाव कहना भी ठीक है. दोनों में कोई मतभेद नहीं। जंगल और पेड़ों के उदाहरण से भी इस बात को समझाया जा सकता है- जब कोई व्यक्ति किसी जंगल के बारे में बताता है तो इसका अर्थ ये नहीं की पेड़ अब जंगल में विलीन हो चुके हैं। उनका अपना अस्तित्व अब भी बना हुआ है। एक दृष्टि के सही साबित होने के लिए दूसरे का गलत सिद्ध होना जरूरी नहीं। अनेकांतवाद के अनुसार वेदान्त और बौद्ध मत एक-दूसरे को बाधित नहीं करते।

अब इसी बात को समय की दृष्टि से देखिए-

वेदान्तकार नित्यता मानते हैं, जबकि बौद्ध मत क्षणिकवाद है। आम तौर पर दोनों को एक-दूसरे का विरोधी माना गया है। वेदान्त के अनुसार सृष्टि का न कोई आदि है और न कोई अंत, वही बौद्ध मत के अनुसार, हर क्षण सृष्टि नई है। लेकिन अनेकांतवादी दृष्टिकोण के अनुसार दोनों में कोई फर्क नहीं। इस बात को भी पेड़ के उदाहरण से समझा जा सकता है- पहले हम बीज देखते हैं, फिर अंकुर फूटता है, उसके बाद तना बढ़ता है और अंत में फल लगते हैं। फिर फल से बीज बनते हैं। अब फल लगने की घटना को पहले पेड़ की ज़िंदगी का अंश माना जाए या अगले पेड़ का जन्म? ये देखने वाले की दृष्टि पर निर्भर करता है- उसे नए पेड़ का जन्म कहना भी संभव है, और पहले पेड़ के जीवन-चक्र का भाग भी। हमारा मन कभी-कभी चीजों को उनकी निरन्तरता में देखता हैं और कभी-कभी क्षणों में। दोनों दृष्टियाँ अपनी-अपनी जगह ठीक हैं। निरन्तरता और क्षणिकता नजर-नजर की बात है। वेदान्त और बौद्ध मतों का झगड़ा एकांतवादी दृष्टि, मैं ही सही का परिणाम है’। सत्य अनेकांतवादी दृष्टिकोण में दिखाई देता है- जब आदमी एक ही समय कुछ भी बनने के लिए तैयार हो। किसी बात को पकड़ कर चलने वाला हठधर्मी मानव सत्य का दर्शन नहीं कर सकता।

इस तरह का झगड़ा मतों के बीच दैववाद और पौरुषवाद को लेकर भी होता है- मतलब हम खुद अपने कर्मों से अपना भाग्य बनाते हैं या किसी विधाता ने पहले से हमारी नियति तय कर रखी है। चूंकि अनेकांतवादी मत चरमपंथी नहीं है इसलिए वह दोनों बातों पर हाँ बोल देगा- कुछ बातों में बुद्धि पूर्वक पौरुष नहीं चलता। ऐसे में भाग्य ही मालिक है। लेकिन कुछ चीज़ें हम खुद कर सकते हैं, ऐसी बातों में अपने पुरुषार्थ और कर्मों पर ही भरोसा करना चाहिए।

वेदान्त मानता है की ब्रह्म अजर-अमर है। न कभी शुरू हुआ और न कभी खत्म होगा। बौद्ध कहते हैं, ये सृष्टि हर क्षण नई है।

तो सृष्टि नश्वर है या अनश्वर है? जमाली के प्रश्न के उत्तर में महावीर कहते हैं, “सुनो जमाली, ये सृष्टि अनश्वर है। ऐसा कोई समय नहीं था जब सृष्टि नहीं थी। लेकिन सृष्टि में मौजूद हर वस्तु नश्वर है। ऐसी कोई चीज नहीं जिसका नाश नहीं होता।

इसी प्रकार जब महावीर का शिष्य स्कंधक उनसे पूछता है, ‘हमारी सृष्टि सीमित है या अनंत?’

वे कहते हैं, “अगर हम वस्तुओं और पदार्थों की दृष्टि से दुनिया को देखें तो वह सीमित प्रतीत होती है। हम चीजों और पदार्थों को नाप सकते हैं। उसी प्रकार अगर हम क्षेत्रफल की दृष्टि से देखें तो सृष्टि सीमित है। हम जितनी दूरी की कल्पना कर सकते हैं, उसको नाप भी सकते हैं। लेकिन अगर हम समय की दृष्टि से सृष्टि को देखें तो उसका कोई आदि-अंत नहीं। न वह कभी शुरू हुई थी और न उसका कभी अंत होगा।

वेदांती और बौद्ध विशुध्दता की तलाश में हैं. तार्किक चरमपंथी ऐसे हर तर्क की आलोचना करते हैं जो उनके मूल सिद्धातों से मेल नहीं खाता. लेकिन एक प्रकार की विशुद्धता सृष्टि में नहीं मिलती. अनेकांतवाद तर्क में मध्यमार्गी और व्यवहारिक है.

महावीर भारत के महान संत थे. उनको किसी पंथ या संप्रदाय में बाँध कर देखना ठीक नहीं. अनेकान्तवाद आज भी प्रासंगिक और आत्मसात करने योग्यता दर्शन है.

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