Skip to main content

सांख्य दर्शन क्या है? अर्धनारीश्वर और शिव लिंग का आशय क्या है?

 

सांख्य दर्शन

 

नमस्कार मित्रों

अर्धनारीश्वर की छवि किस भारतीय ने नहीं देखी होगी. शिव और शक्ति के योग से बने अर्धनारीश्वर हमें क्या बताना चाह रहे हैं?...

अधिकांश भारतीयों ने इस प्रतीक से जुड़ी पौराणिक कहानियाँ सुनी होंगी. लेकिन शायद ये जान कर वे आश्चर्य करें की इसका संबंध एक ऐसे दर्शन से है जिसका आज करीब-करीब पूरी तरह से लोप हो चुका है. हमारे धर्मग्रंथो में कहीं कहीं इस प्राचीन कालजयी दर्शन की हलकी झलक मिल जाती है. लेकिन इसके मूल सिद्धांतों से आधुनिक भारतीय तकरीबन अनभिज्ञ हैं.

कालजयी इसलिए क्योंकि ये दर्शन पूरी तरह से तर्क पर आधारित है. अनुभव पुराने पड़ जाते हैं, लेकिन तर्क और गणित आधारित सिद्धांत कभी गलत नहीं होते. सांख्य दर्शन न केवल हमेशा प्रासंगिक है, बल्कि आधुनिक विज्ञान से भी मेल ख़ाता है.

तो आइए इस प्राचीन दर्शन को विस्मृति के गर्भ से खोद निकालें-

आज से करीब दो हज़ार साल पहले सांख्य भारत का प्रमुख दर्शन था. इतना प्राचीन की महाभारत में भी इसका जिक्र अत्यंत प्राचीन दर्शन के रूप में हुआ है. उपनिषदों में इसकी चर्चा है, वेदों में सांख्य दर्शन के तत्व घुल-मिल गए हैं, और कुछ इतिहासकार तो सिंधु घाटी सभ्यता की छवियों मे भी इसकी झलक देखते हैं.

सांख्य दर्शन के मूल में है प्रकृति – जो पूरी सृष्टि और संसार की मूल स्रोत और जनक है. बल्कि ये भी कह सकते हैं की जो कुछ है प्रकृति ही है, उसके अलावा और कोई अस्तित्व नहीं. प्रकृति न कभी शुरू हुई और न कभी इसका अंत होगा. हर दिशा में जो कुछ है प्रकृति है, हर काल में जो कुछ था प्रकृति थी और भविष्य में जो कुछ होगा प्रकृति होगी.

प्रकृति का कोई कारण नहीं है. वो बस है.

प्रकृति का कोई प्रयोजन या उद्देश्य नहीं है. वह अपनी गति और नियमों से चल रही है.

अगर कभी ये नियम बदल जाएं, तो समझो यही नए नियम हैं.

प्रकृति न दया करती है और न क्रूरता. अच्छाई -बुराई वे करते हैं जिनके लक्ष्य होते हैं. सूर्य का कोई लक्ष्य नहीं, और उसका कोई दल है, इसलिए अच्छाई-बुराई करने का कोई सवाल नहीं.

प्रकृति चेतन नहीं है. वह देख नहीं सकती, सुन नहीं सकती, मेहनत नहीं कर सकती, आराम नहीं करती.

प्रकृति बस है – अंधी, बहरी, और गूंगी. नित्य गतिमान और अचेतन.

प्रकृति अपने आप में पूर्ण है. उसमें कुछ जोड़ने या घटाने की संभावना नहीं. लेकिन अपने मूल रूप में वह अव्यक्त है. मतलब दिखाई नहीं देती, सुनाई नहीं देती, महसूस नहीं होती क्योंकि देखने के लिए दृष्टा चाहिए, सुनने के लिए सुनने वाला चाहिए और महसूस करने के लिए महसूस करने वाला. ये सब मूल प्रकृति में नहीं है, इसलिए वह अव्यक्त है. उसमें बहुत कुछ होता है, लेकिन ऐसा होना, होने के जैसा नहीं, क्योंकि उसका होना देखने वाला कोई नहीं. जैसे कोई जलसा अपने आप हो जाए लेकिन कोई दर्शक ना हो. जैसे कोई बाजा खुद को बजा ले और कोई सुनने वाला न हो. जब हवा सरसराते हुए टहनियों से गुज़र जाए लेकिन कोई उसे महसूस न करेजैसे किसी दूर ग्रह पर कोई फूल खिल कर मुरझा जाए लेकिन उसके सौंदर्य को निहारने वाला कोई न हो.

अगर एक भी भक्त न हो तो क्या भगवान भगवान रह जाएंगे? गरिमा गान करने वाले के अभाव में प्रकृति कुछ नहीं. उसमें बहुत कुछ होता है, लेकिन उस होने को दर्ज करने वाला कोई नहीं. ऐसा होना भी न होने के जैसा है. इसलिए मूल प्रकृति को सांख्य में अव्यक्त कहा गया है. वह है लेकिन जाहिर नहीं होती.

प्रकृति के व्यक्त होने के लिए पुरुष चाहिए. बल्कि ये कह सकते हैं की पुरुष का आत्म बोध ही प्रकृति का मूल उद्देश्य है.

अब ये पुरुष कौन हैं? और प्रकृति के उद्देश्य की बात कैसे आई? अभी तो कहा गया की सांख्य के अनुसार प्रकृति का अपना कोई उद्देश्य नहीं.

आइए इसे ठीक से समझते हैं

मूल प्रकृति में तीन प्रकार की सम्भावनाएं मौजूद हैं -तमस, राजस और सत्व. तमस जड़ता हैं. तमस का आशय अंधकार, अज्ञान, गतिरोध और ठहराव है. राजस गति, ऊर्जा और बदलाव है जबकि सत्व का अभिप्राय चेतना, प्रकाश और ज्ञान है.

कभी-कभी इन तीन सम्भावनाओं में सत्व प्रबल होने लगता है. जिससे बुद्धितत्व का जन्म होता है. बुद्धितत्व चेतना (प्रकृति को देखने की क्षमता) की पहली अवस्था है. इसका मूल भी प्रकृति ही है, लेकिन बुद्धितत्व के होने का कारण ही ये है की वह खुद को प्रकृति से अलग समझे- प्रकृति से जन्म लेने के बावजूद खुद को उससे बाहर माने, उसे भोगे, उसे जीतने की कोशिश करे, उससे प्रेम करे, शत्रुता करे, उसे निहारे. बुद्धितत्व प्रकृति का पहला दृष्टा है. उसको देखने वाली पहली चेतना.

बुद्धितत्व को आधुनिक विज्ञान की भाषा में क्या कहा जाए? हमारे सांख्यकार पूर्वज evolution के सिद्धांत नहीं जानते थे. उनका पूरा दर्शन तर्क पर आधारित था. लेकिन, समझने की सहूलियत के लिए मान सकते हैं की पहला बुद्धितत्व पहला जीव होगा.6:14 ऐसा unicellular organism जो प्रकृति से खुद को बचाने और अपना वंश बढ़ाने की कोशिश करता होगा. वही पहला बुद्धितत्व था.

आज धरती पर जितने मानव-मानवी सांस लें रहे है, और बाकि समस्त जीव-जंतु उसी पहले बुद्धितत्व की संताने हैं. बुद्धितत्व ही वो पहला चिन्ह है, वो पहला एकलिंग है जिससे सभी चेतन प्राणी निकले हैं.

एकलिंग चेतना की पहली संभावना थी और हम उस संभावना के फलिभूत स्वरुप. इसलिए लिंग को चेतना का स्रोत माना गया है.

हालांकि ये जोड़ना ज़रूरी है की लिंग पूर्वविकसित चेतना को नहीं, बल्कि उसकी संभावना को दर्शाता है. पहले प्राणियों मे तमस और राजस अधिक था. प्रकृति को समझने से ज्यादा, उनकी प्रवित्ति प्रकृति को भोगने और उसको जीतने की थी. प्रकृति उनकी माता होते हुए भी उनकी शत्रु सी जान पड़ती है. जीव जितने अधिक चेतना और सत्व से परिपूर्ण होते हैं उनमें प्रकृति चेतना उसी अनुपात में विकसित होती जाती है. जहाँ सरिसृप केवल भोजन और प्रजनन से खुश हैं, वहीं विकसित चेतना वाले पशु इतने भर से संतुष्ट नहीं होते.

सांख्य दर्शन भले ही आधुनिक श्रोता को तर्क मूलक और वैज्ञानिक लगे, लेकिन प्राचीन वेदांतकारों को उनकी बातें उलटबांसी सी लगती थी.7:49 जहाँ सांख्य दर्शन चेतना को प्रकृति की उपज मानता है, वहीं वेदांत का विश्वास है की पहले चेतना थी, फिर सृष्टि बनी. इस फ़र्क़ को समझाने के लिए ब्रह्मसूत्र लिखने वाले महर्षि बदरायण सांख्य को प्रधान कारण वाद और वेदांत को चेतना कारण वाद कहते हैं. वेदांत के अनुसार सृष्टि का बीज ब्रह्म है- चेतना से प्रकृति बनी, वहीं सांख्य के अनुसार प्रकृति से चेतना का जन्म हुआ. वेदांत में पुरुष पूरी सृष्टि का कर्ता है- जैसे की कृष्ण गीता में कहते हैं- हर शरीर और अचेतन वस्तु कृष्ण के ही कर्मों का निमित्त/जरिया है. 8:31 इसके विपरीत सांख्य में कर्ता केवल प्रकृति है और पुरुष विशुध्द चेतना मात्र.

सांख्य और वेदांत दो विपरीत धाराएं हैं. ये बिना अपना स्वरूप खोए एक दूसरे से नहीं मिलाई जा सकती. शायद इसलिए बदरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र के 555 सूत्रों में से 60 सांख्य दर्शन की आलोचना में लिखे हैं, जबकि बौद्ध और जैन मतों की आलोचना में उन्होंने केवल 17 और 4 सूत्र लिखे.

सांख्य दर्शन के तर्कपरक और बुद्धिवादी दृष्टिकोण के कारण प्रसिद्ध दार्शनिक सुरेंद्रनाथ दासगुप्ता ने सांख्य को बौद्ध और जैन मतों का मूल माना है. कुछ कुछ इसी तरह की बात शंकराचार्य अपनी टीका में भी लिखते है- जिस प्रकार विरोधी पक्ष के पहलवान को चित्त कर देने पर छुटभइये पहलवानों से भिड़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती, उसी प्रकार अगर कोई वेदांतकार शास्त्रार्थ में सांख्य के तर्कों को काट दे तो उसे जैन और बौद्ध पंडितों से आगे बहस करने की ज़रूरत नहीं.

बदरायण के ब्रह्मसूत्र पर अपनी टीका में वेदांतकार महर्षि रामानुज भी यही बात दोहराते हैं की सांख्य के सिद्धांत वेदांत के विपरीत जाते हैं. अगर सांख्य को काट दिया जाए तो कनाद, अक्षपाद, बुद्ध और जिन (महावीर) के दर्शन भी धराशाई हो जाते हैं. रामानुज आगे लिखते हैं की छंदोग्य उपनिषद के पुरुष सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सृष्टि के कर्ता हैं, जबकि सांख्य के पुरुष की उत्पत्ति प्रकृति से होती है. दोनों को एक समझने की गलती नहीं करनी चाहिए. शंकराचार्य पुराणों, भागवत और धर्मसूत्रों से प्रमाण देकर दिखाते हैं की अचेतन प्रकृति से चेतना की उपज गलत अवधारणा है, जबकि रामानुज मनुस्मृति, गीता और महाभारत उद्धरित कर साबित करना चाहते हैं की सबसे पहले चेतन पुरुष था, फिर अचेतन प्रकृति बनी.

शंकराचार्य तो सीधे शब्दों में सांख्य को वेद विरुद्ध और मनुवचन विरुद्ध बताते हैं. उनके अनुसार सांख्य सिद्धांत न केवल व्यवहारिक दृष्टि से गलत मालूम पढ़ते हैं बल्कि वैदिक दृष्टि के भी विपरीत जाते हैं.

एक प्राचीन सांख्य ग्रंथ चरक 10:56 संहिता के अनुसार सिर्फ प्रकृति ही चलायमान है. सृष्टि और संसार में पुरुष की भूमिका केवल दृष्टा की है. इसे समझाने के लिए कपिल मुनि एक अंधी औरत और लंगड़े पुरुष के गठजोड़ का उदाहरण देते हैं. प्रकृति चलती है और पुरुष रास्ता प्रज्वलित करता है. ये रास्ता दिखाना दिशा दिखाने जैसा नहीं. इसको ऐसे समझा गया है जैसे की अंधा शरीर आगे-आगे चल रहा हो और आँखें सिर्फ बता रही हों की अब कहाँ पहुंच गए. गन्तव्य अंधी प्रकृति की गति से अपने आप तय होता है, पुरुष बस उसकी पहचान करता है.

अपने आप में पुरुष विशुद्ध चेतना के अलावा कुछ नहीं. उसकी भूमिका किसी ऐसे वीडियो game के पात्र की तरह है जिसकी कहानी पहले ही अचेतन प्रकृति लिख चुकी है.

हालांकि तमस और राजस से बंधा पुरुष अपने लिए ये निष्क्रिय भूमिका स्वीकार नहीं करना चाहता. उसकी चेतना को तमस और राजस के बादल घेरे रहते हैं और उसे प्रकृति को बदलने  रोकने, घेरने, छेड़ने के लिए प्रेरित करते रहते हैं. तमस और राजस के ये बादल अविद्या की छाया हैं, जो पुरुष को उसकी नियति समझने से रोकते हैं. विशुद्ध चेतना बनना पुरुष की नियति है. अचेतन प्रकृति ने अनजाने में उसका सृजन किया  इसलिए उसकी नियति वह भी नहीं जानती.

अविद्या के कारण पुरुष प्रकृति को बदलने की कोशिश में लगा रहता है, उसकी गति को अपने अनुसार ढालना चाहता है. लेकिन बंधना प्रकृति की नियति नहीं. चलना और बदलना उसकी मूल प्रवृत्ति है.

कर्ता बोध तथा संसार और प्रकृति को जीत लेने की ललक- राजस अविद्या के परिचायक हैं. पुरुष का पुरुषार्थ तब साकार होता है जब वह समझ ले की दुनिया में उसकी भूमिका विस्मित दर्शक से अधिक कुछ नहीं.

प्रकृति से टूटा पुरुष भी आखिर प्रकृति का ही रूप है. वह उसका सृजन करने वाली माता भी है और उसको रिझाने वाली सखी भी. 13:30 जब तक पुरुष उसे पकड़ना चाहता है वो उसकी गिरफ्त से छूट कर भागती रहती है. मुँह मोड़ लेने पर दूर से उसे नृत्य से रिझाती है. बिना कुछ कहे बुलाती है. और आसक्त पुरुष उसके पीछे-पीछे भागता है.

पुरुष चेतना साकार तब होती है जब पुरुष प्रकृति को पकड़ने के बजाए खुद को उसमें खोने के लिए तैयार हों जाता है. उसकी गति को बाँधने के बदले साथ बहने के लिए राज़ी हो जाता है. गतिरोध तमस है और प्रतिरोध राजस. प्रकृति से सच्चे प्रेम में तमस और राजस दोनों छूट जाते हैं. तब विशुद्ध चेतन पुरुष अपने अंग अंग में प्रकृति का अलिंगन देखता है. जिसे पकड़ने के लिए भाग रहा था वह तो हमेशा उसके साथ ही थी. उसकी चिर अर्धांगिनी प्रकृति तो उसके रोम रोम में  समाई है. संख्याकार कपिल समझाते हैं की मिट्टी के बर्तन बन जाने से मिट्टी के अस्तित्व का अंत नहीं हों जाता. सब तेरा सब तेरा का मंत्र चेतन पुरुष के मन को पावन कर देता है. जिसे ढूंढ रहा था वह पूरी संपदा हमेशा से उसकी ही थी.

पुरुष एक खिड़की से अधिक कुछ 14:44नहीं, जिससे प्रकृति दूसरा बन कर खुद को निहारती है. अपनी अचेतन गति के लिए अर्थ और सौंदर्य गढ़ती है.

पुरुष की दृष्टि से प्रकृति का अंग-अंग खिल उठता है. जहाँ पहले अचेतन अंधकार था वहां अब सृष्टि का कलरव, रंग और कलाकारी है.

पुरुष प्रकृति को देखता है, या प्रकृति खुद को पुरुष बन कर देखती है. दोनों को एक कहना भी ठीक नहीं, एक दूसरे से पृथक कहना भी ठीक नहीं.

प्रकृति के ध्यान में मग्न पुरुष ही प्रकृति का असली सौंदर्य देख पाता है. तमस और राजस से भरा पुरुष प्रकृति की आँखें नही बन सकता. अविद्या की नज़र से उसे प्रकृति की गति अपनी गति लगती है, उसके भीतर के अंतर्विरोध निजी युद्ध से प्रतीत होते हैं. प्रकृति में डूबने के बजाय वह उससे लड़ता है. ऐसे पुरुष की आँखों में सौंदर्य बोध नहीं होता. सौंदर्य का आविर्भाव पुरुष के ध्यान में होता है. जब पुरुष गुण शून्य बन जाता है, उसकी आँखों से प्रकृति झांकती है. और इस नज़र में पुरुष का आत्मबोध निहित है. देखने वाला भी मैं, दिखाई देने वाला भी मैं. जैसे की कबीर ने कहा ‘सब हम मय, हम सब मय. हम बहुरि अकेला’. सांख्य में मुक्ति को कैवल्य कहा गया है चेतना स्वरुप पुरुष अकेला हो जाता है. उसे ये बोध हो जाता है की सृष्टि में चेतना और प्रकृति के अलावा तीसरा कोई नहीं. सांख्य में हर पुरुष एक अलग आत्मा है, वेदांत की तरह सभी आत्माओं के एक होने जैसी कोई बात नहीं. हर पुरुष के आत्म-बोध में प्रकृति को एक नया प्रयोजन मिलता है. बल्कि ऐसा कह सकते हैं की पुरुष की दृष्टि से ही प्रकृति की गति प्रयोजन का रूप लेती है.

प्रकृति अनंत काल से अपने लिए दृष्टा सृजन कर रही है, और आगे भी करती रहेगी. पुरुष आते जाते रहे हैं. या ऐसे कह सकते हैं की पुरुष अनंत काल से ये रहस्य समझते चले आ रहे हैं की यहां आत्मबोध के अलावा हासिल करने के लिए कुछ नहीं. न कहीं आना है, और न कहीं जाना है, हम बिलकुल वही खड़े हैं जहाँ हमें होना चाहिए -प्रकृति के आगोश में -जो हमारी माता भी है और मोहिनी भी.

माला जपु न जप करुँ और मुख से कहूं न राम

राम हमारा हमें जपे रे कबीरा हम पायो विश्राम कबीरा, हम पायो विश्राम

 

 

 

Comments