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ऋग वैदिक धर्म और इन्द्र

 

नमस्कार मित्रों! स्वागत हैं आपका भारत की कहानी में। आज हम हाजिर हैं ऋग वेद में देवता इंद्र का वर्णन लेकर। इंद्र चरित्र के माध्यम से पाठक का परिचय अन्य वैदिक देवी-देवताओं से भी करवाया जाएगा। यहाँ प्रस्तुत सारे विवरण ऋग वेद के श्लोकों से उद्धृत हैं।

ंद्र कौन हैं?

जो आकाश के देवता हैं. धवल धूप से सजे नभ पर जिनका राज है, और जो घनघोर मेघों के स्वामी हैं, वे हैं देवता इंद्र.

जिनके अधरों पर हमेशा मुस्कान खेलती है, जिनके हाव-भाव राजसी हैं. मनुष्यों के रक्षक, समृद्धि की वर्षा करने वाले देवता इंद्र हैं।

इंद्र का नाम नीले खिले आकाश का पर्यायवाची है. एक अन्य व्याख्या के अनुसार इंद्र शब्द संस्कृत मूल,इंदु' से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है बूँद . शायद इसलिए कि इंद्र वर्षा के दाता हैं.

इंद्र युद्ध के देवता हैं, और आकाश में विचरने वाले देवों के नेता.

जंगल में भटके चरवाहों को भीमकाय पेड़ हिला कर अपनी उपस्थिति का आभास करवाते हैं. अपने भयावह बल के बावजूद वे मानवों को प्रिय हैं.

पृथ्वी और अंतरिक्ष जिनके सामने शीश झुकाते हैं, जिनकी सांस से पहाड़ों में भूचाल आ जाता है. जिनके डर से हर अडिग चीज कांपती है. सूर्य जिनके रथ के घोड़े हाँकता है. इंद्र की गर्जना से समस्त सृष्टि डरती है. इंद्र अप्रतिरोध्य हैं, सदैव विजयी हैं.

इंद्र का दानव वृत्ता से युद्ध

नीचे, पृथ्वी हैं, ऊपर आकाश और शीर्ष पर अंतरिक्ष. अंतरिक्ष शाश्वत प्रकाश, शाश्वत शांति और अनंत जल का स्थान है. वहां देवी अदिति के पुत्र, उज्ज्वल दैदीप्यमान आदित्य रहते हैं. उनका निवास नित्य पवित्र और दुष्ट आत्माओं के लिए वर्जित है.

लेकिन मध्य में  आकाश है, जहाँ दुर्भावनापूर्ण आत्माओं का वास है. मनुष्यों की रक्षा के लिए उनसे इंद्र युद्ध करते हैं.

क्षितिज पर, धरती और नभ के मिलन से इंद्र का जन्म हुआ. वे आज भी शत्रु संहार करने के लिए क्षितिज से प्रकट होते हैं.

आकाश में दानव जमा होते हैं, और सृष्टि के नियमों को भंग करने का प्रयास करते हैं. परम व्योम के देवता वरुण जीवन दायी जल धरती के लिए छोड़ते हैं. ये धाराएं न कभी थकती हैं, और न कभी डरती हैं. आकाश से नीचे उतर धरती के कोने-कोने में पक्षियों की तरह फ़ैल जाती हैं.

वर्षा के आशीर्वाद के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकते. ये बात दानव जानते हैं. इसलिए वरुण की भेजी धाराओं को बीच आकाश में रोक लेते हैं. उन्हें विशाल बादलों के दुर्गों में बाँध कर रख लेते हैं. फिर वे जल धाराएं चोरी की गई गायों की तरह रम्भा-रम्भा कर पुकारती हैं. तब इंद्र प्रकट होते हैं. वर्षा चुराने वाले दानवों से युद्ध कर जल धाराओं को मुक्त कर देते हैं. और फिर से वर्षा धरती पर गाय के थन से टपके दूध की तरह बरसने लगती है.

वर्षा चुराने वाले दानवों में सबसे भीमकाय था वृत्ता नाग. जो बादल रूपी पहाड़ों पर पहरा देते पड़ा रहता. अपने जन्म के तुरंत बाद इंद्र ने अपने वज्र से वृत्ता दानव के कई टुकड़े कर दिए थे.

जब इंद्र ने वृत्ता का वध करने के लिए अपना वज्र उठाया, उसने अपने शरीर को घने कोहरे में छुपा लिया. फिर अपनी गरज से और अपनी विशाल पूँछ फड़फड़ा कर उसने इंद्र को भयभीत करना चाहा. बिजली, ओलों से उन पर हमला करना चाहा. लेकिन जब इंद्र ने साध कर अपने वज्र का प्रहार उसके चेहरे पर किया, वृत्ता के टुकड़े-टुकड़े हों गए.

आदित्य और वरुण

अदिति के पुत्र आदित्य, जिनका परम व्योम में वास है, स्वभाव से सौम्य, शालीन और कृपालु हैं. वे स्वयं दानवों से नहीं लड़ते. ये क़ाम इंद्र का है. वे मध्य आकाश में देवों के सेनापति का क़ाम करते हैं.

परम व्योम में निवास करने वाले आदित्य परम प्रकाश के प्रतिरूप और तीनों लोकों का विधान देने वाले हैं. पूरी सृष्टि पर उन्हीं की सत्ता व्याप्त है. लेकिन दानव उनका शासन स्वीकार नहीं करते.  अंतरिक्ष से भेजा वरुण का जल बाँध कर सृष्टि का विधान अस्त-व्यस्त करते हैं. उनको रोकने के लिए इंद्र दिन-रात अपना वज्र लिए आकाश में पहरा देते हैं. इसलिए वे कहलाए व्रतपा देवनाम (देवों की विधि के संरक्षक)

इंद्र और वरुण दोनों जल के देवता हैं. दोनों महा शक्तिशाली और रणभूमि में अपराजित हैं. वरुण का स्थान निःसंदेह श्रेष्ठ है. पूरी सृष्टि का विधान वरुण का लिखा हुआ है. तीनों लोकों के प्राणी उनकी ही बनाई विधि से चल रहे हैं. लेकिन अधिक पूजा इंद्र की होती हैं क्योंकि वे आकाश के रक्षक और दानवों के संहारक हैं. इस कारण कभी-कभी वरुण और इंद्र में प्रतिस्पर्धा हो जाती है. ऋग वेद में एक जगह वरुण कहते हैं, ‘ये साम्राज्य मेरा है. सारे योद्धा, देवी-देवता, और अनश्वर जीव मेरे बनाए हुए हैं; मेरे विधान से चलते हैं. सारे जनों पर मेरी ही सत्ता है. मनुष्यों के हाड़-मांस तक मेरे हैं. मैं हूं राजा वरुण. सारी दैवी शक्तियां मेरी बनाई हुई हैं. हे इंद्र! मैं ही वह कुशल शिल्पी हूं जिसने सारे लोक रचे हैं. मैं ही उनका सृष्टि कर्ता और मैं ही उनका पालक हूं. वह मैं ही था जिसने अंतरिक्ष से बहते जल का सृजन किया और परम व्योम को सृष्टि के शिखर पर स्थापित किया. मैं अदिति पुत्र वरुण, तीनों लोकों का कर्ता.”

इसके उत्तर में इंद्र कहते हैं, “शूरवीर, कुशल अश्वरोही, और शत्रु पर झपटते योद्धा मेरा आह्वान करते हैं. मैं इंद्र! युद्ध भड़काता हूं, रणभूमि में धूल उड़ाता हूं. इस सृष्टि में ऐसा कोई वीर नहीं जो मेरी शक्ति को चुनौती दे सके. ऐसा कोई देवता नहीं जो मेरे बल को बाँध सके; जब मैं सोम और मंत्र से उन्मत्त होकर रणभूमि पर उतरता हूं तीनों लोक काँपते हैं.

वरुण ने भले ही सृष्टि की विधि लिखी हो, इंद्र से ज्यादा शक्तिशाली कोई नहीं.

इंद्र और मारूत

मारूत इंद्र के चिर सहचर हैं. युद्ध भूमि में उनके साथ जाते हैं. वे आंधी स्वरूप देव हैं. ऋग वेद की कई सुक्तियों मे इंद्र को मारुतवंत कहा गया है. वहीं मारूत इंद्रवंताह और इंद्रज्येष्ठाह कहलाए. अधिकांश उनका क़ाम रणभूमि में इंद्र का प्रशस्ति गान करना है, चूंकि इंद्र को युद्ध जीतने के लिए किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं. वे इंद्र की जयजयकार करते हैं, और उनके लिए सोमरस पीसते हैं. कहीं-कहीं उनको इंद्र का पुरोहित भी कहा गया है. वृत्ता के साथ युद्ध में जहाँ बाकि देवता भयभीत होकर भाग गए थे, मारूत निडर होकर इंद्र का विजयगान करते युद्धभूमि में खड़े रहे.

इंद्र और सोम

सोम और इंद्र का बेहद घनिष्ठ संबंध है. सोम एक मादक द्रव्य भी है और देवता भी. हालांकि मानवों के पीसे सोम पर हर देवता का अधिकार है, लेकिन पहली प्याली हमेशा इंद्र को अर्पित की जाती है.

इंद्र के जन्म के दिन माता ने उनको सोमरस चखाया था. हर युद्ध से पहले वे इसे ग्रहण करते हैं. सोम उनके पराक्रम और बल का पोषक है. सोम के बिना इंद्र पूरे नहीं, और इंद्र के सिवाय सोम कुछ नहीं. इसलिए रणभूमि में इंद्र के यश का भागी सोम को भी माना गया है.

इन्द्र की सोम से आसक्ति तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। इसलिए उनका एक नाम है द्युक्क्षो  मदस्य सोमस्य राजा ‘सोम के मद में चूर तेजवान राजा’। एक सूक्ति के अनुसार, ‘पीसे हुए सोम की प्याली पर इन्द्र की एकछत्र सत्ता है’। किसी प्यासे बारहसिंघे, या त्रिषित सांड की तरह सोम पीने के लिए कवि देवता इन्द्र का आह्वान करते हैं। उनके पेट की तुलना किसी पोखर से की गई है। कभी वे तीन सरोवरों के बराबर सोम पी जाते हैं और कभी तीस सरोवरों के बराबर, और वह भी एक घूंट में। फिर यज्ञ मंडप के इर्दगिर्द डगमगाती नांव की तरह ढुलकते हैं। सोम प्रेम के कारण उनका एक नाम विथुरों अस्तर (डगमगाता धनुर्धर) भी है।

तो ये था हमारे ऋग वैदिक पूर्वजों की आस्थाओं का संक्षिप्त विवरण। आस्था पर टिप्पणी करना इतिहासकार का काम नहीं। लेकिन इतना कहना मुश्किल नहीं की ऋग वैदिक धर्म प्राचीन युग की एक विलक्षण रचना है। हमारे वैदिक पूर्वज आधुनिक विषमताओं से अनभिज्ञ थे, जटिलता से अछूते थे। उनके गीतों से प्रकृति प्रेम, प्रफुल्लता, ताजगी, और जीवंतता की फुहार आती है जिन्हें सुन कर आज भी श्रोता का मन मंगल की कामना से भर जाता है।


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