Skip to main content

भगवान बुद्ध का नास्तिक दर्शन

 

ुनिया के हर धर्म में दो बातें जरूर पाई जाती हैं। ईश्वर में आस्था और आत्मा की अमरता में विश्वास। खासकर आत्मा का अमरत्व धार्मिक चेतना की विशिष्ट पहचान है। कोई मानव मरना नहीं चाहता, सभी ये उम्मीद पालते हैं की मरने के बाद भी कहीं बचे रहेंगे। और ऐसी ही दिलासा धर्म उनको देते भी हैं- की तुम्हारा पुनर्जन्म होगा, तुम वैकुंठ में वास करोगे, जन्नत मकानी बनोगे, heaven में जाओगे आदि-आदि।  

लेकिन बौद्ध धर्म ऐसी कोई उम्मीद नहीं देता। मृत्यु का मतलब अंत ही होता है; जैसे किसी मोमबत्ती का बुझ जाना; अभी थे, अगले क्षण खत्म। उसके बाद कुछ नहीं। न कुछ सुनाई देगा, न कुछ महसूस होगा। और शरीर धरती में विलीन हो जाएगा।

बौद्ध क्षणिकवाद (philosophy of momentariness)

बौद्ध दर्शन एक प्रकार का क्षणिकवाद है। क्षणिकवाद? आइए इस सिद्धांत को उदाहरणों से समझें

नीला आकाश देखिए-

इसका नीलापन कहाँ है? अगर हम हवाई जहाज से ढूँढने जायें तो कहीं नहीं मिलेगा। नीलापन सूर्य की किरणों के बिखराव की प्रक्रिया का प्रभाव है। किरणों का बिखराव लगातार हो रहा लेकिन नीलापन हमें किसी स्थाई चीज की तरह दिखाई देता है. पने आप में नीलापन कुछ नहीं है। केवल हमारी दृष्टि किरणों के बिखराव को नीले रंग के रूप में प्रस्तुत करती है।  

नदी की धारा को देखिए- अभी जो नदी आपने देखी वह बह गई। अगले क्षण आप जिस पानी को देख रहे हैं वह दूसरा पानी है। शायद किसी और नदी का, या किसी और बारिश से बह कर आया हो। लेकिन हमारी दृष्टि ऐसा आभास देती है जैसे की नदी कोई स्थाई चीज हो।

यहाँ गौर करने वाली बात है की हमें कोई भ्रम नहीं हो गया है। इस मामले में बौद्ध धर्म वेदान्त से अलग है’ वेदान्त की माया मिथ्या चेतना है। लेकिन बुद्ध कुछ और कह रहे हैं।

नदी का अस्तित्व मिथ्या नहीं है। अगर उसमें घुसे तो यकीनन डूबेंगे। ये भ्रम नहीं नजर के फेर की बात है। नदी एक मायने में स्थाई भी है, और एक प्रक्रिया/process भी। या फिर ऐसे कह सकते हैं की हमारा मन इस प्रक्रिया का स्थायित्व दर्शा रही है

दी में अपना खुद का कुछ नहीं है; बौद्ध भाषा में उसका अपना कोई स्व-भाव नहीं है। अगर वर्षा न हो, बर्फ न पिघले तो नदी कुछ नहीं। इसलिए एक दृष्टि में ये कहना गलत नहीं होगा की नदी का अपना कोई अस्तित्व नहीं, और जो हम देख रहे हैं वह दरअसल वर्षा और पिघली हुई बर्फ है। लेकिन साथ ही नदी के अस्तित्व को नकारा भी नहीं जा सकता।  

कुछ-कुछ इसी तरह बुद्ध मानव जीवन को भी समझते हैं।

एक शरीर को दूसरे से फर्क करना तो आसान है- जहां मेरी नाक खत्म हुई वहाँ मेरा शरीर खत्म हो गया। लेकिन किसी एक आदमी के विचारों की सीमा निर्धारित करना असंभव कार्य है। शरीरों की तरह, विचारों के बीच कोई रेखा खींचना संभव नहीं। सभी मानव मस्तिष्क एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था हैं। मेरे मन और पड़ोसी से मन के बीच की रेखा पानी में खींची रेखा सी लगती है। रोज न जाने कितने लोगों के विचार हमारे अंदर प्रवेश करते हैं; और हमारे विचार उनके अंदर.

विचारों की बात ऐसी है जैसे की सड़क पर दौड़ती गाड़ियां, जिन्हें हम अपना कहने लगते हैं- किसी कंपनी ने नया vacation package निकाल दिया, और सैकड़ों लोग ऐसा सोचने लगे की उसका अनुभव लेना उनकी भीतर से निकली दिली तमन्ना है।

बुद्ध के अनुसार पूरी मानव जाति की चेतना को एक मन समझा जा सकता है- ठीक वैसे ही जैसे की सभी समुन्द्र, नदियों, और जलाशयों को एक साथ धरती का पानी बोल जा सकता है।

मानव मन  

जो पीछे कहा गया अगर वह ठीक है तो हम अपना-पराया क्यों करते हैं? हमें क्यों लगता है की हमारे विचार हमारे ही हैं?

क्योंकि मानव मन अहम बोध पैदा करता है। ठीक वैसे ही जैसे चिंगारी, लकड़ी, और धुआँ मिल कर आग का प्रभाव उत्पन्न करते हैं। मन में चेतना का बहाव एक स्थाई और निजी personality का प्रभाव उत्पन्न करता है। अगर chemistry की दृष्टि से देखा जाए तो मिट्टी और हमारे बीच कोई रेखा नहीं। जो हमने खाया शरीर बन गया। एक मन ही है जो एक मानव को दूसरे से अलग होने का आभास करवा रहा है। वरना natural sciences की दृष्टि से मानव धरती पर उगती काई या घास से कुछ अलग नहीं।

मैं होने का आभास एक effect है। जो हमारा मन पैदा करता है। हमारी कोई permanent personality नहीं है। आधुनिक मनोविज्ञान भी बहुत कुछ बौद्ध मनोविज्ञान को प्रमाणित करता है। Freud समझाते हैं की हमारी personality हमारे मन से ज्यादा बाहर समाज, बाजार और व्यवहार में बसी है।

अधिकांश मानव एक ही तरह सोचते हैं, लेकिन सभी का मन समझाता है की हमारी तरह कोई नहीं सोचता।

हमारी मनोदशा नदी की ही तरह एक बहाव है। इसमें अभी जो दिखाई देता है- क्षण भंगुर है। हर नए विचार के आते ही हम थोड़ा बदल जाते हैं। क्षण-क्षण नदी के बहाव की तरह थोड़ा-थोड़ा बदलते जाते है; हर साल बदल जाते हैं। हमारे विचार इतने बदल जाते हैं की पुरानी डायरी मिल जाने पर विश्वास तक नहीं होता की हमारी ही लिखी बाते हैं। लेकिन मन, ‘तुम वही हो’ का प्रभाव उत्पन्न करता है।

आप प्याज की परतें उतारते जायें तो अंदर से असली प्याज नहीं बाहर या जाएगा। उसी प्रकार किसी के मन की गहराई में उसका कोई विशेष सत्य नहीं छुपा होता। वहाँ भी बहते विचार ही मिलेंगे जो एक मन से दूसरे मन घूमते जुडते रहते हैं। किसी आदमी का स्वभाव निर्धारित करना उतना ही असंभव है जितना किसी नदी का। हम यकीनन कह सकते हैं की जो नदी हम देख रहे हैं गंगा ही है। लेकिन गंगा में ऐसी कोई चीज नहीं जो सिर्फ गंगा की हो। कुछ-कुछ ऐसा ही हाल मानव मन का भी है। किसी सिनेमा की reel की तरह चेतना नए-नए दृश्य दिखाती जाती है। जब तक शरीर जीता है, reel चलती है। शरीर खत्म होते ही reel रुक जाती है।

क्या सृष्टि ईश्वर ने बनाई है?

लेकिन ये सब कर कौन रहा है? सृष्टि किसने बनाई, विचार किसने बनाए, अहम बोध किसने बनाया? इनका रचयिता कौन है? क्या उसे ईश्वर नहीं कह सकते? बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व को क्यों नकारते हैं?

इसको ठीक से देखने की जरूरत है.

बुद्ध के दर्शन में सृष्टि के process/प्रवाह या बहाव है. हर चीज लगातार बदल रही है. कुछ चीज़े ज्यादा तेज़ी से और कुछ थोड़ी धीरे-धीरे. और ये बदलाव कार्य कारण परिणाम, याने की law of causation के अनुसार हो रहा है. Law of causation तर्क संगत (logical) है. सृष्टि के नियम किसी के लिए नहीं बदलते. अगर देवता भी धरती पर उतर आएं तो प्रकृति के नियमों से खुद को बंधा हुआ पाएंगे.

यहां कोई पूछेगा की ये नियम किसने बनाए? सृष्टि की रचना किसने की? शायद लोग कहें की ईश्वर ने बनाई। ठीक।

लेकिन ईश्वर को किसने बनाया?

अगर ईश्वर के ऊपर भी कोई बनाने वाला है तो उसको बनाने वाला भी कोई होगा। और उस बनाने वाले को बनाने वाला भी, और फिर उसको बनाने वाला.. ये जवाब इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि फिर तो अनगिनत बनाने वालों की परिकल्पना करनी पड़ेगी.

इस परेशानी से बचने के लिए ईश्वरवादी कहते हैं की ईश्वर अकारण है. उसने खुद स्वयं को बनाया. और फिर सृष्टि को बनाया.

मतलब सृष्टि बनने का कारण ईश्वर है.

तो ईश्वर अकारण भी है, और सृष्टि बनने का कारण भी है.

यहां धर्मकीर्ति एक सीधा सा सवाल पूछते हैं क्या कोई चीज बिना अपना स्वरुप बदले किसी चीज के बनने का कारण बन सकती है?

कम से कम कुछ नहीं से कुछ तो बनना पड़ेगा!

अगर कोई चीज नित्य है, इसका मतलब उसका स्वरूप कभी नहीं बदलता.

और जो चीज स्वरुप बदलती है वह नित्य नहीं हो सकती.

कोई ऐसी चीज जो अपना स्वरुप नहीं बदलती कोई कारण /cause कैसे पैदा करेगी.

ईश्वर अगर नित्य एक समान है तो वे कारण कहा से आए जिन्होंने सृष्टि को पैदा किया?

इसको एक उदाहरण से समझिए पहले दुनिया में corona नहीं फैला था. 2020 में फ़ैल गया. तो क्या हम ऐसा नहीं मान सकते की पहले की अवस्था में कुछ नए कारण जुड़े होंगे जिनसे इस बिमारी का जन्म हुआ.

उसी प्रकार पहले नित्य ईश्वर था, लेकिन सृष्टि नहीं थी. फिर वे कौन से कारण आए जिनके कारण ईश्वर ने सृष्टि बनाई.

क्योंकि ईश्वर तो पहले भी था, लेकिन सृष्टि नहीं थी. और चूंकि ईश्वर नित्य स्वरूप है, मतलब ईश्वर हमेशा ईश्वर है इसलिए उसका रूप नहीं बदलता. जो चीज स्थाई है वह किसी नई चीज का कारण नहीं बन सकती.

हर घटना के अनगिनत कारण होते हैं, जो उस घटना मे विलीन हों जाते हैं. चूंकि कभी न बदलने वाली चीज कोई नई चीज नहीं बना सकती इसलिए यही मान लेना तर्क संगत लगता है की अनंत काल से बदलाव ही सृष्टि की प्रकृति रही है. अनगिनत कारण नए प्रभाव उत्पन्न कर रहे हैं; और वे नए प्रभाव नए प्रभावों का कारण बन रहे हैं. ऐसे ही हमारी सृष्टि अनंत काल से आगे बढ़ती बदलती चली आ रही है. इसके अंदर ऐसा कोई तत्व नहीं जो नित्य स्थाई है.

धर्मकीर्ति के अनुसार अगर हम कुछ होने के कारण ढूंढ़ने चले तो उनका पता लगा सकते हैं. लेकिन कारणों के भी पीछे किसी ईश्वर की कल्पना का कोई कारण नहीं दिखाई देता.

जो अस्तित्व में है प्रवाह में है, गतिमान है। जो गतिमान है वह अनित्य है, अर्थात लगातार अपना स्वरूप बदल रहा है। इसलिए नित्य ईश्वर, जिसका स्वरूप कभी नहीं बदलता, एक कोरी कल्पना मात्र है, जिसका कोई तार्किक आधार नहीं।

क्या पुनर्जन्म होता है?

तो बुद्ध के दर्शन में न कोई ईश्वर है और न कोई स्थाई आत्मा। फिर पुनर्जन्म किसका होता है। अगर आत्मा नहीं तो पुनर्जन्म की बात कैसे आई। ये सवाल यूनानी राज्य menander (मिलिंद) ने बौद्ध भिक्षु नागसेन से पूछा। जवाब में भिक्षु नागसेन कहा, ‘महाराज, आपके दालान में जो आम का पेड़ लगा है उसके फल मीठे आते हैं या खट्टे?’

मिलिंद ने  उत्तर दिया, ‘भन्ते, जब वहाँ आम के पेड़ हैं ही नहीं तो उनके स्वाद का सवाल कहाँ उठता है?’

नागसेन ने कहा, ‘बिल्कुल ठीक महाराज। जब आत्मा है ही नहीं तो उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहाँ उठता है?’

आत्मा होने का आभास हमारा मन हमें करवाता है। दरअसल कोई निश्चित व्यक्तित्व है ही नहीं। जैसे एक नदी हर क्षण नई है, उसी प्रकार हमारा व्यक्तित्व भी हर क्षण नया है। पल-पल हमारा पुनर्जन्म हो रहा है। शरीर के अंत के बाद भी विचार नहीं मरते। वे किसी और शरीर के माध्यम से बहते हैं।

नदी अमर है। लेकिन हर क्षण नई भी है। कल जो गंगा बही थी उसका आज कोई अस्तित्व नहीं है, लेकिन नया पानी गंगा बन कर बह रहा है। गंगा अमर होने के लिए क्या कर सकती है? उसे बस ये जान लेना है की वह पहले से ही अमर है।

निर्वाण किसे कहते हैं?  

हम पहले से ही अमर हैं। हम पूरी सृष्टि हैं ये ज्ञान हम तर्क से पा सकते हैं। लेकिन मन अब भी जीवित है, जो हमें समझाए रखता हैं की शरीर का अंत हमारा अंत है।

इसलिए बौद्ध दर्शन में साधना का अर्थ मन का समूल नाश है। जिसके मन का नाश हो गया वह बुद्ध बना।

मन का नाश तब होता है जब एक मानव अहम भाव का त्याग कर देता है। तर्क से अपना अमरत्व जान लेना एक बात है, लेकिन मन नहीं मानता। श्रद्धा, या आस्था का स्थान यहीं पर है। अपने तर्क में पूरी आस्था रखना ही साधना है।

लेकिन एक समस्या अब भी सामने आती है। बुद्ध के समकालीन एक धर्म गुरु थे मक्कली गोशाला। उनका दर्शन घोर भौतिकवादी और नास्तिक था। उनके विचार में जब कोई ईश्वर है ही नहीं तो सही गलत का भी कोई माने नहीं। जब ताज जियो सुख से जिओ, उधार की खाओ, मौज में रहो की सीख वे अपने शिष्यों को देते थे।

नास्तिक होते हुए भी बुद्ध मक्कली गोशाला की सीख को सभी पंथों में सबसे ज्यादा मूर्खतापूर्ण मानते थे। मक्कली गोशाल सृष्टि को तो समझ गए लेकिन उन्होंने मन की खबर नहीं ली। मन की करने वाले कभी खुश नहीं रहते। क्योंकि मन की प्रवित्ती संतुष्ट होने की है ही नहीं। मन की करने वाले दुख और सुख के चक्र में फंसे रहते हैं। और अंत में अधिक भाग दुख का ही उनके हाथ आता है।

बुद्ध मन की करने की सीख नहीं देते थे। उनका कहना था की मन का समूल नाश और मुक्ति उनके दर्शन का एकमात्र उद्देश्य है। अहम भाव छोड़े बिना मुक्ति संभव नहीं। मन की करने वालों के जीवन में दुख ही दुख नियत हैं। मन को साधना एक मात्र धर्म बाकि किसी चीज की ज़रूरत नहीं  - न किसी किताब की और न किसी अनुष्ठान की. मन का समूल नाश ही निर्वाण और मुक्ति है.

ऐसे ही रोचक और ज्ञानवर्धक पॉडटकास्ट सुनने के लिए सबस्क्राइब करिए, भारत की कहानी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Comments